जन्मदिन विशेषः शहीद ए आजम भगत सिंह को सलाम

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  • नवीन शर्मा

ब्रिटेन से भारत को आजाद कराने में निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा इसके नेताओं, खासकर महात्मा गांधी की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। स्वतंत्रता के बाद देश में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में सरकार बनी थी। इसी सरकार की देखरेख में कई भारतीय इतिहासकारों नें किताबें लिखीं, जो हम स्कूल-कॉलेजों में पढ़ते रहे हैं। इन किताबों में आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों के योगदान को बहुत ही कम तवज्जो दी जाती है। आजादी की लड़ाई में भगत सिंह और उनके साथी को उतनी तवज्जो नहीं मिली, जितनी मिलनी चाहिए थी।

स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास बताते समय क्रांतिकारियों के बलिदान की तुलना में उन्हें काफी कम स्थान दिया जाता है। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, करतार सिंह सारभा, उधम सिंह, अरंिवंद घोष, वीर सावरकर, मास्टर सूर्यसेन ऊर्फ मास्टर दा, बाघा जतीन, खुदीराम बोस, राम प्रसाद बिसमिल, अशफाक उल्ला खां जैसे सैकड़ों क्रांतिकारी थे, जिन्होंने भारत मां की आजादी के लिए अंग्रेजी हुकूमत से मुकाबला किया था। कई ने अपने प्राणों की आहूति दी। कई गोलियों का शिकार हुए, दर्जनों हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए। इनके बलिदानों की गाथाएं बहुत ही छिटपुट ढंग से स्कूल-कॉलेज की किताबों में दर्ज होती हैं। जबकि इन क्रांतिकारियों की हिंसक वारदातों ने भी अंग्रेजों को जल्द से जल्द भारत छोडऩे के लिए मजबूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

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1857 की क्रांति के बाद भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों को सबक सिखाया था। पंजाब में सांडर्स की हत्या, एसेंबली में बम तथा काकोरी ट्रेन डैकती इनमें प्रमुख वारदातें थीं।

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भगत सिंह हालांकि आजादी की लड़ाई में शस्त्र उठाने को गलत नहीं मानते थे लेकिन इसके बावजूद वो सिर्फ गोली-बंदूक की ही भाषा में बात करनेवाले व्यक्ति नहीं थे। वे पढऩे-लिखनेवाले प्रबुद्ध व्यक्ति थे। उनपर कम्युनिज्म का भी प्रभाव था।

एसेंबली में जो बम भगत सिंह और इनके साथियों ने फेका था वो किसी को मारने के लिए नहीं था बल्कि बहरों को सुनाने के धमाका करना जरूरी है  इस तर्क के आधार पर बम फेका गया। बम फेक कर वे भाग सकते थे लेकिन उन्होंने भागने की कोशिश भी नहीं की थी। भगत सिंह ने गिरफ्तारी दी तथा इसके बाद उन पर चलाए गए मुकदमे की सुनवाई के दौरान भगत सिंह और उनके साथ देश के हीरो बन गए थे। इनको रिहा करने के लिए देश के कई शहरों में जुलूस निकाले गए थे। इसके बाद भी जब तत्कालीन वायसराय इरविन के साथ गांधी जी का जो समझौता हुआ उसमें कांग्रेस या गांधी जी ने इन क्रांतिकारियों को फांसी ना दी जाए ऐसी कोई मांग नहीं रखी थी। इसका तर्क शायद ये दिया जा सकता है कि ये क्रांतिकारी हथियार के बल पर भी आजादी पाने को बुरा नहीं मानते थे जबकि गांधीजी की पूरी कवायद अहिंसक आंदोलन की रही थी। लेकिन यह तर्क गले नहीं उतरता है क्योंकि दोनों ही विचारधारा के लोग एक ही मकसद देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे। दोनों का दुश्मन एक ही था वो अंग्रेजी हुकूमत तो ऐसे में विचारधारा अलग रहने के बाद भी इन क्रांतिकारियों की फांसी की सजा रद करने की मांग कांग्रेस को करनी ही चाहिए थी।

बाद के वर्षों में कांग्रेस ने अपनी नीति थोड़ी बदली जब आजाद हिंद फौज के युद्ध बंदियों कर्नल शाहनवाज, गुरबख्श सिंह ढिल्लो पर लाल किले में मुकदमा चला तो भुलाभाई देसाई व जवाहर लाल नेहरू सहित कई कांग्रेसी नेताओं ने इनके पक्ष में वकील के रूप में पैरवी की थी।

मित्रों भगत सिंह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों में मुझे सबसे अधिक पसंद आनेवालों में से हैं। वे इनमें शायद सबसे अधिक पढ़ने लिखनेवालों में से भी एक हैं। वे अच्छे संगठनकर्ता भी थे। वे धर्म की तुलना में देश को अधिक महत्व देते थे शायद इसीलिए सिख होते हुए भी केश कटवा लिये थे। वे काफी आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे। टोपी के साथ उनकी तस्वीर सचमुच काफी आकर्षक लगती है। जब उनपर मुकदमा चल रहा था तो वे उस समय भारत के सबसे लोकप्रिय शख्सीयत थे।  भगत सिंह की जयंती पर सभी क्रांतिकारी देशभक्तों को सलाम।

शहीदों की चिताओं पर हर वर्ष लगेंगे मेले, वतन पर मिटनेवालों का यहीं बाकी निशां होगा।

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