दंगा रोकने निकले पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का मिला था शव

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जयंती पर विशेष

  • नवीन शर्मा

कलम की ताकत क्या होती है और निडर और निष्पक्ष पत्रकारिता किस तरह की जा सकती है, इसकी प्रेरणा हम गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन से ले सकते हैं। खासकर आज के दौर में विद्यार्थी जैसे लोगों की कमी काफी खलती है। 1931 में कानपुर में दंगे हो रहे थे।  ऐसे मौके पर गणेश शंकर विद्यार्थी से रहा न गया और वे निकल पड़े दंगे रोकने। कई जगह पर तो वो कामयाब रहे, पर कुछ देर में ही वे दंगाइयों की भीड़ में फंस गए। दूसरे दिन उनका शव बरामद किया गया।

कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे। उन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो  महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन के समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आज़ादी के लिए लड़ने में सक्रिय सहयोग प्रदान करते थे।

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गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 में अपने ननिहाल प्रयाग (आधुनिक इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता जयनारायण  स्कूल में अध्यापक थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी।  आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे  एण्ट्रेंस तक ही पढ़ सके। किन्तु वे स्वाध्याय करते  रहे ऊर्दू और फारसी की भी अच्छी जानकारी हासिल की। 16 साल की उम्र में  उन्होंने गांधीजी से प्रेरित होकर अपनी पहली किताब हमारी आत्मोसर्गता लिखी। उन्हें  नौकरी मिली पर  अंग्रेज़ अधिकारियों से नहीं पटी तो नौकरी छोड़ दी।

प्रताप अखबार की शुरुआत की

विद्यार्थी जी ने प्रताप अखबार की शुरुआत  9 नवंबर, 1913 को की थी। विद्यार्थी जी के जेल जाने के बाद प्रताप का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी और बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे बड़े साहित्यकार करते रहे। ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’ गीत जो श्याम लाल गुप्त पार्षद ने लिखा था, उसे भी 13 अप्रैल 1924 से जलियांवाला की बरसी पर विद्यार्थी जी ने गाया जाना शुरू करवाया था।

पांच बार जेल गए ः गणेश शंकर विद्यार्थी वैसे तो  5 बार जेल गए। 1922 में  आखिरी बार मानहानि के केस में जेल हुई थी। विद्यार्थी जी ने जनवरी, 1921 में प्रताप अखबार में रायबरेली के ताल्लुकदार सरदार वीरपाल सिंह के खिलाफ रिपोर्ट छापी थी। वीरपाल ने किसानों पर गोली चलावाई थी और उसका पूरा ब्यौरा प्रताप में छापा गया था। इसलिए प्रताप के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी और  शिवनारायण मिश्र पर मानहानि का मुकदमा हो गया। गवाह के रूप में इस केस में मोतीलाल नेहरू और जवाहर लाल नेहरू भी पेश हुए थे। फैसला ताल्लुकदार के पक्ष में गया। दोनों लोगों पर दो-दो केस थे और दोनों लोगों को 3-3 महीने की कैद और पांच-पांच सौ रुपये का जुर्माना हुआ। ये मुकदमा लड़ने में उनके 30 हजार रुपये खर्च हो गए। पर, प्रताप इस केस से लोकप्रिय हो गया। खासकर किसानों के बीच। विद्यार्थी जी को भी सब लोग पहचानने लगे। उनको लोग प्रताप बाबा कहते थे।

अंग्रेजों को भी प्रताप से प्रॉब्लम थी। इसलिए यह सही मौका था कि वे प्रताप को लपेटे में लेते। तो उन्होंने ले भी लिया। एडिटर और छापने वाले दोनों से पांच-पांच हजार का मुचलका और 10-10 हजार की जमानत मांगी। 7 महीने से ज्यादा विद्यार्थी जी जेल में रहे। 16 अक्टूबर, 1921 को खुद उन्होंने इसके बाद कानपुर में गिरफ्तारी दी। 10 दिन कानपुर जेल में रहे और फिर लखनऊ भेज दिए गए।  22 मई को जब जेल से निकले तो उन्होंने जेल में लिखी डायरी के आधार पर जेल जीवन की झलक नाम से सीरीज छपी और बहुत हिट रही।

गांधी के बाद कोई मजहब के नाम पर लड़ना रोक सकता है तो वे हैं मोहानी

मशहूर गजल चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है…लिखने वाले प्रसिद्ध शायर हसरत मोहानी गणेश शंकर विद्यार्थी के बहुत अच्छे दोस्त थे। हरसत मोहानी की 1924 में जब जेल से वापसी हुई तो गणेश शंकर विद्यार्थी ने उनकी तारीफ में प्रताप में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मौलाना को मजहब के नाम पर झगड़ने वालों को रोकना चाहिए और मोहानी ही हैं जो गांधी जी के बाद लोगों को मजहब के नाम पर एक-दूसरे को मारने-मरने से बचा सकते हैं।

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