और अविनाश जी की हो गई विदाई, अश्क को मिली पटना की कमान

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ओमप्रकाश अश्क
ओमप्रकाश अश्क

वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क का पटना आगमन 1997 के मध्य में हुआ और अगले पड़ाव की ओर वह जून 1999 में प्रस्थान कर गये। दो साल के अपने अल्प प्रवास को उन्होंने अपनी प्रस्तावित- पुस्तक मुन्ना मास्टर बने एडिटर- में कुछ इस तरह समेटा है। सार्थक समय.काम इसे धारावाहिक छाप रहा है। 

शौर्य, संस्कार और ज्ञान की धरती पर मेरा नया अवतार था। बिहार का होने के बावजूद पटना शहर को जानने-समझने का अवसर बहुत इसलिए नहीं मिल पाया था कि करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर मेरा लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा के संस्कार संपन्न हुए थे। तब मेरे जैसे लोगों के लिए पटना पहुंचना किसी सुनियोजित तीर्थयात्रा से कम न था। कालेज के दिनों और उसके बाद गिनती की कुछ ही यात्राएं मैंने पटना की की थीं। हरिवंश जी की इच्छा से पटना में दो साल तक प्रवास का अवसर प्राप्त हुआ।

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पत्रकारिता में परिचय के नाम पर देवेंद्र मिश्र जी (तब हिन्दुस्तान में समाचार संपादक) थे, जिन्होंने मुझे पत्रकारिता का न सिर्फ पहला पाठ पढ़ाया था, बल्कि इसे पेशे के तौर पर अपनाने का अवसर भी चंद्रेश्वर जी के माध्यम मुहैया कराया था। प्रभात खबर समूह से कमोबेश पांच-छह साल (व्यतिक्रम को छोड़ कर) रिश्ते के कारण पटना में मेरे दफ्तर के पिरचितों में अविनाश चंद्र ठाकुर, अजय कुमार, अरुण श्रीवास्तव, सियाराम प्रजापति, विश्वकर्मा और प्रमोद जैसे लोग थे। तब यूनिट संभाल रहे अभय सिन्हा भी परिचितों में से एक थे, जिनसे एक-दो मौकों पर ही बातचीत हुई थी या मिलना-जुलना हुआ था।

हरिवंश जी, आरके दत्ता और केके गोयनका जी भी पटना पहुंच चुके थे। मुझे बताया कि आज तुम्हें  आफिस नहीं जाना है। गेस्टहाउस में ही रुको। फिर 10 बजे के करीब वे लोग आफिस के लिए निकल गये। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ। बहरहाल, शाम को वे लोग आफिस से लौटे। इस बीच मैंने प्रमोद (पिउन, जो गेस्टहाउस में ही रहता था) से पता कर लिया था कि अभी संपादकीय प्रभारी कौन है और दूसरे नंबर पर कौन काम देखता है। उसने बताया कि दूसरे नंबर पर अविनाश चंद्र ठाकुर हैं और संपादकीय प्रभारी (प्रमोद की भाषा में संपादक) अविनाश चंद्र मिश्रा है।

रात में तीनों लोग आफिस से लौटे। कुछ न कहा और बताया। सामान्य हालचाल। खाना खाया कि नहीं और फिर प्रमोद को हरिवंश जी का आदेश कि अश्क को भी आम खिलाओ। आम का सीजन तब समाप्ति की ओर था। हमें याद है कि आम का अंतिम सीजन था। हरिवंश जी ही आम लेकर आये थे। हमें भी प्रमोद ने काट कर दिया। कोई बातचीत नहीं हुई। अगले दिन मुझे आफिस आने को कह तीनों वरिष्ठ दफ्तर निकल गये। वहां जाने पर हरिवंश जी ने कहा कि तुम अभी किसी को नहीं बताओगे कि किस रूप में आये हो। दूसरा टास्क सौंपा कि सारी चीजें समझो। घाटे में यह संस्करण चल रहा है, इसे कैसे पाटा जाये, इसकी योजना बनाओ। मेरे बैठने की जगह ओपन एडिटोरियल में ही किसी सीट पर कर दी गयी। शायद अविनाश ठाकुर को कुछ संकेत था। संपादकीय का सारा काम वही देखते, लेकिन राय भी ले लिया करते। उसी दिन एक खाली केबिन को देख मैंने ठाकुर जी से पूछा कि इसमें कौन बैठता है। उन्होंने बताया कि अविनाश चंद्र मिश्रा जी बैठते थे। फिर हिस्ता-आहिस्ता सब जान गया कि मुझे पटना संस्करण सौंपने के पीछे की हकीकत क्या था। पता चला कि अविनाशचंद्र मिश्र और दीपक कोचगवे को हटा दिया गया एक ही दिन। किसी को यह न लगे कि उन्हें हटाया गया है, इसलिए बात को गोपनीय रखा गया था, यह कह कर कि वे लोग छुट्टी पर हैं।

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मैं अपने हिसाब से संस्करण की आर्थिक हालत सुधारने की योजना में जुट गया। सबसे बड़ी कठिनाई दफ्तर को लेकर थी। एक बार जो सीढ़ियां चढ़ कर आ जाता, वह दोबारा घर जाने के वक्त ही उतरना चाहता था। किराया भी अधिक और कष्ट भी। सर्वाधिक कष्ट रिपोर्टिंग टीम के साथियों को होता था, जिन्हें मीटिंग में आने और फिर रिपोर्टिंग के लिकलने, फिर खबर फाइल करने दफ्तर आने और अंत में घर वापसी के लिए उतरने यानी उन्हें चढ़ते-उतरते चार बार हो जाते।

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तय यह हुआ कि कोई नया दफ्तर देखा जाये। श्रीकृष्ण नगर में स्टेट बैंक के सामने वाली गली में एक मकान का चुनाव नये दफ्तर के रूप में किया गया। सबसे बाहरी हिस्से में दो केबिन थे। एक में मैं बैठता और दूसरे में विज्ञापन के लोग। भीतर में दायें-बायें दो कमरे थे। एक में एकाउंट्स का काम देखने वाले निर्भय सिन्हा बैठते थे। दूसरे कमरे में हरिवंश जी के लिए एक टेबल और दूसरा टेबल इंडियन नेशन से नये ज्वाइन किये एक पंचोली जी थे। उन्हें जेनरल मैनेजर बनाया गया था। उनके बारे में गोयनका जी ने मुझे रांची में ही बताया था कि एक अच्छे जीएम आपको मिल रहे हैं। उनका आठ-दस पेज का बायोडाटा भी उन्होंने दिखाया। उस पर मेरा इंस्टैंट रिएक्शन था कि जिसका बायोडाटा जितना भारी होता है, वह नौकरी में टिकाऊ नहीं होता।

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आमतौर पर जैसा होता है, कोई बड़ा अधिकारी जहां जाता है, वहां अपने चेले-चपाटियों को स्ट्रैटजिक प्वाइंट पर बैठा देता है। पता चला कि तब तक बिना डीटीपी इनचार्ज के हो रहे काम के लिए उन्होंने 8 हजार रुपये महीने पर बंदप्राय इंडियन नेशन से एक आदमी को रख लिया। ब्लैक एंड व्हाइट के तब छप रहे अखबार के लिए कलर मशीन की जानकारी रखने का दावा करते हुए 3000 रुपये के आदमी को हटा कर 6000 रुपये का आदमी रख लिया। एडिटोरियल में भी वे आर्यावर्त से कुछ लोगों को लाना चाहते थे। कहने का तात्पर्य यह कि एक तरफ खर्च कम कर आमदनी बढ़ाने की जिम्मेवारी उन पर सौंपी गयी और तब तक उनके काम से लग रहा था कि वे लगातार खर्च बढ़ा रहे थे। (शाम तक पढ़ें अगली कड़ी)

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