BJP और JDU की युगलबंदी बरकरार रहेगी, दोस्ती में दरार नहीं

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अगर काम को आधार बना कर वोट मिलते हैं तो नीतीश बिहार में सर्वाधिक वोट हासिल करने का पूरा बंदोबस्त कर चुके हैं
अगर काम को आधार बना कर वोट मिलते हैं तो नीतीश बिहार में सर्वाधिक वोट हासिल करने का पूरा बंदोबस्त कर चुके हैं

पटना। BJP और JDU की युगलबंदी बरकरार रहेगी। दोस्ती में दरार की तमाम वजहों के बावजूद दोनों दलों को अपनी ताकत और कमजोरी का खूब एहसास है। इसलिए किसी को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि कई मुद्दों पर JDU की BJP से असहमति के कारण उसके निशाने पर JDU रहेगा या जदयू के निशाने पर भाजपा होगी। दोनों जानते हैं कि एक दूसरे को सहारे की सख्त जरूरत है।

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अकेले चुनाव लड़ कर कामयाब होने की स्थिति में फिलहाल न भाजपा है और न जदयू। कम से कम लोकसभा चुनाव में वोटों के प्रतिशत को देख कर यही पता चलता है। इस बार के लोकसभा चुनाव JDU को 21+ प्रतिशत तो BJP को 23+ प्रतिशत के आसपास वोट मिले थे। यानी BJP भी जानती है कि अपने बूते बिहार में वह कोई कमाल नहीं कर सकती है और जदयू भी भलीभांति समझता है कि बिना किसी को साथ लिए कुछ कर पाना मुश्किल है। यह अलग बात है कि जदयू का साथ देने के लिए भाजपा की धुर विरोधी पार्टी RJD तैयार है।

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यानी जदयू चाहे तो उसे राजद का भी साथ मिल सकता है। भाजपा ने भी अभी तक JDU के साथ कई मुद्दों पर अंतरविरोधों के बावजूद उसके साथ बने रहने में भी ही भलाई समझी है। यानी नीतीश कुमार के दोनों हाथ में लड्डू है। लेकिन नीतीश कुमार भाजपा का लड्डू खाने से परहेज नहीं करेंगे। उन्हें अगर छोड़ना होगा तो राजद के प्रस्ताव को अनसुना कर सकते हैं। नीतीश को जानने-समझने वाले मानते हैं कि वे 2015 में राजद के साथ विधानसभा का चुनाव लड़ कर कामयाबी का स्वाद भले चख चुके हैं, लेकिन उसके बाद उन्हें राजद को लेकर जितनी जलालत झेलनी पड़ी, उसे देखते हुए वह राजद के साथ जाने के पहले सौ बार सोचेंगे।

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नीतीश कुमार जिस जाति से आते हैं, उसका वोट प्रतिशत दहाई से भी कम है, लेकिन लोकसभा में अपने दम पर 21 प्रतिशत से ज्यादा वोट लेकर नीतीश ने साफ कर दिया है कि उनका वोट हर जाति में है। उन्होंने राजद के वोट बैंक में सेंधमारी की है। मुसलिम मतदाता नीतीश पर राजद से कहीं ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। यह जानते हुए कि वे उनकी नापसंद पार्टी भाजपा के साथ सरकार चला रहे हैं या आगे भी चला सकते हैं। यादवों के वोट में भाजपा ने सेंधमारी कर दी है। यानी राजद को लोकसभा चुनाव में मिले तकरीबन 16 प्रतिशत वोट इस बात की गवाही देते हैं कि उसका पारंपरिक एम-वाई (मुसलिम-यादव) समीकरण दरक चुका है। सवर्ण तो शुरू से ही राजद के खिलाफ रहे हैं। कमजोर वर्ग के सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को नीतीश कुमार ने खुशी-खुशी स्वीकार किया और इसके लिए कानून बनाया। लेकिन राजद ने इसकी मुखालफत कर सवर्णों का पार्टी में बचाखुचा भरोसा भी गंवा दिया।

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भाजपा के साथ रहते हुए भी तीन तलाक, धारा-370, कामन सिविल कोड, नागरिकता कानून और राम मंदिर पर अध्यादेश के सवाल जैसे मुद्दों पर नीतीश कुमार के विरोध ने जदयू के प्रति मुसलमानों का भरोसा बढ़ाया है। अपने काम से नीतीश ने तो देश में बिहार का नाम रौशन किया ही है। जाति के आधार पर वोट की राजनीति उनके एजेंडे में कभी नहीं रही। अगर रहती तो तीसरी बार वे मुख्यमंत्री नहीं बनते और चौथी बार मुख्यमंत्री बनने की उनकी राह भी आसान होती नजर नहीं आती।

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एक कयास यह भी लगाया जा रहा है कि भाजपा और जदयू दोनों अपनी ताकत बढ़ाने का अलग-अलग प्रयास कर रहे हैं। दोनों के सदस्यता अभियान चल रहे हैं। दोनों अपनी रणनीति के तहत काम कर रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यही है कि 2014 से लेकर 2019 के लोकसभा चुनाव तक भाजपा यह समझ गयी है कि बिहार में फिलहाल अपने बूते सरकार बनाना संभव नहीं है और जदयू से उसके जिस तरह के रिश्ते रहे हैं, उससे बेहतर रिश्ता और किसी दल से बनाना टेढ़ी खीर है। इसलिए इस मुगालते में किसी को नहीं रहना चाहिए कि मौजूदा तनातनी जैसी स्थितियों के आधार पर यह पक्के तौर पर कहा सके कि जदयू और भाजपा की राह अगामी विधानसभा चुनाव में जुदा हो सकती है।

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