शक्ति चाहे किसी भी रूप में हो विवेकहीन होती हैः रवींद्रनाथ ठाकुर

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रवींद्र नाथ टैगोर
रवींद्र नाथ टैगोर

शक्ति चाहे किसी भी रूप में हो विवेकहीन होती है। कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने 12 अप्रैल 1919 को महात्मा गांधी को लिखे पत्र में यह कहा था। उन्होंने पत्र की शुरुआत दो कविताओं से की थी। कविता के पहले ‘प्रस्तावना’ के रूप में यही लिखा- प्रिय महात्माजी, शक्ति चाहे किसी भी रूप में हो विवेकहीन होती है-— वह उस घोड़े के समान है, जो आंखों पर पट्टी बांधे गाड़ी खींचता है। वहां नैतिक तत्व का प्रतिनिधित्व केवल घोड़ा हांकने वाला ही करता है। निष्क्रिय प्रतिरोध एक ऐसी शक्ति है, जिसका अपने-आप में नैतिक होना आवश्यक नहीं है। इसका उपयोग सˆत्य के विरुद्ध भी किया जा सकता है और सत्य के पक्ष में भी। किसी भी तरह की शक्ति में अं‹तर्निहित खतरा उस समय और भी प्रबल हो जाता है, जब उसके सफल होने की सम्भावना हो, क्योंकि उस परिस्थिति में उसमें लोभ भी शामिल हो जाता है।

मैं जानता हूं, आपकी शिक्षा शिव की सहायता से अशिव के विरुद्ध संघर्ष करने की है। किंतु इस प्रकार का संघर्ष तो वीर ही कर सकता है। जो व्य€क्ति क्षणिक आवेग के वशीभूत हो जाते हैं वे ऐसा संघर्ष नहीं कर सकते। एक पक्ष की बुराई स्वभावत: दूसरे पक्ष में बुराई उत्पन्न करती है; अन्याय हिंसा की ओर ले जाता है और अपमान प्रतिहिंसा की ओर। दुर्भाग्य से एक ऐसी शक्ति को गति मिल चुकी है; हमारे अधिकारियों ने भय अथवा क्रोध के कारण हम पर वार किया और इसका स्पष्ट ही यह प्रभाव हुआ कि हममें से कुछ ने आक्रोश में भरकर गुŒप्त मार्ग अपनाया और दूसरे बिल्कुल भींगी बिल्ली होकर रह गये।

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इस संकट के समय आपने मानव-जाति के महान नेता के रूप में हमारे बीच आकर उस आदर्श के प्रति अपने उस विश्वास की घोषणा की, जिसे आप भारत का आदर्श मानते हैं। वह आदर्श गुप्त प्रतिकार की इ‘च्छा से उत्पन्न कायरता तथा भय से ˜त्रस्त होकर चुपचाप आत्मसमर्पण कर देने वाली दोनों भावनाओं के विरुद्ध है। आपने उसी तरह की बात कही है, जैसी भगवान बुद्ध ने अपने समय में सर्वकाल के लिए कही थी : अ€कोधेन जिने क्रोधम् असाधु साधुना जिने। (अक्रोध से क्रोध को और अशिव को शिव से जीतो।)

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शिव की इस शक्ति को चाहिए कि वह निर्भय होकर ऐसी किसी भी सत्ता को अस्वीकार कर दे, जो अपनी सफलता के लिए अपनी ˜त्रास देने वाली शक्ति पर निर्भर करती है और बिल्कुल निहत्थे लोगों पर विनाश करनेवाले अपने शस्त्रास्त्रों का उपयोग करने से नहीं हिचकाती। हमें निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि नैतिक विजय सफलता पर निर्भर नहीं करती और न असफलता ही उसे उसके गौरव एवं महत्व से वंचित करती है। जो लोग आध्यात्मिक जीवन में विश्वास रखते हैं, वे जानते हैं कि जिसके पीछे अतिशय भौतिक बल हो ऐसी बुराई का मुकाबला करना ही विजय है- एक ऐसी विजय है, जो प्रˆत्यक्ष रूप से पराजित हो जाने पर भी आदर्श पर सक्रिय विश्वास रखने से उपलब्ध होती है।

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मैंने सदैव यह अनुभव किया हैं और तदनुसार कहा भी है कि स्वाधीनता का महान उपहार जनता को दान में कभी नहीं मिल सकता। हमको इसे उपलब्ध करने के लिए इसे जीतना होगा। भारत को इसे जीतने का यह अवसर तब आएगा, जब यह सिद्ध कर देगा कि चारित्रिक रूप से यह उन लोगों से श्रेष्ठतर है, जो विजेता होने के अधिकार से उस पर शासन करते हैं। तभी उसे अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध होगा। इसे अपनी कष्टपूर्ण तपस्या को स्वेच्छा से स्वीकार करना होगा, यह तपस्या महानता का भूष‡ण है। अपनी अच्छाई की परमनिष्ठा के बल पर इसे उन घमंडी शक्तियों का अदम्य साहस के साथ निडर होकर मुकाबला करना है, जो आत्मिक शक्ति का तिरस्कार करते हैं।

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आप अपनी मातृभूमि में ऐसे अवसर पर पधारे हैं, जब उसे उसके ध्येय की याद दिलाने, विजय के स‘च्चे मार्ग पर ले जाने तथा उसकी वर्तमान राजनीति को उसकी दुर्बलताओं से मुक्त करने की आवश्यकता है। वर्तमान राजनीति कूटनीतिक छल-कपट की पराई पोशाक पहन कर अकड़ दिखाती हुई ऐसा समझती है, मानो उसने अपना मतलब सिद्ध कर लिया है। इसीलिए मेरी (ईश्वर से) हार्दिक प्रार्थना है कि आपके पथ में कोई भी ऐसी बाधा न आये, जिसके कारण हमारी आध्यात्मिक स्वतंत्रता के कमजोर पड़ने की आशंका हो और सˆत्य के लिए किया जाने वाला बलिदान केवल शाब्दिक आग्रह का रूप कभी धारण न करे; यह शाब्दिक आग्रह पवित्र नामों की आड़ में धीरे-धीरे आत्म-प्रवंचना का रूप धारण कर लेता है।

ये कतिपय शब्द मैंने प्रस्तावना के रूप में लिखे; अब मुझे अनुमति दें कि मैं आपके उदात्त कार्यों के प्रति कवि के रूप में अपनी भावना व्य€क्त करूं।

सूर्योदय से पहले धुंध

मुझे इस विश्वास के साथ अपना मस्तक ऊंचा रखने की शक्ति दे

कि तुम हमारे आश्रय हो,

सभी प्रकार के भय का मतलब है

तुम्हारे आŸश्रय के प्रति अविश्वास

मानव का भय? विश्व में ऐसा कौन मानव,

कौन नृप और नृपों का नृप, जो तुम्हारी बराबरी कर सके

और सचमुच कौन अन्य शक्ति है जिसने मुझे सदैव सत्यता

से अपने नियंत्रण में रखा है?

विश्व में ऐसी कौन शक्ति है जो मुझे

मेरी स्वाधीनता से वंचित कर सके? €

क्या काल कोठरी की दीवारों के पार

बं‹दी को शस्त्र देने तुम्हारे हाथ नहीं पहुंचते

उसकी आत्मा की मु€क्ति के लिए, बंधन काटने हेतु।

और क्या मैं मृत्यु-भय से इस देह से

चिपका रहूं, कृपण से रिक्त कोष की भांति?

मेंरी इस आत्मा के लिए शाश्वत जीवन हेतु

तुम्हारा चिरंतन आह्वान नहीं है क्या?

सभी वेदना और मृत्यु क्षणिक छाया-मात्र हैं।

तुम्हारे सत्य और मेरे मध्य जो तमस है

वह सूर्योदय से पूर्व धुंध के समान है।

यह सच है कि तुम ही सर्वदा मेरे सर्वस्व हो

और उस गर्व की शक्ति से श्रेष्ठतर हो जो अपनी

विभीषिका में मेरे पौरुष का उपहास करने का साहस करती है।

वर दे

मेरी विनती है, मुझे वर दे प्यार के श्रेष्ठ साहस का

साहस कहने का, करने का और तुम्हारी इच्छानुसार कष्ट सहने का,

तुम्हारे भरोसे सभी कुछ तजने का अथवा

साहस अपना एकाकीपन सहने का

मेरी विनती है, मुझे वर दे, प्यार में परम निष्ठा का

निष्ठा मरण में जीवन की, हार में जीत की,

सौं‹दर्य की क्षणभंगुरता में छिपी शक्ति की,

चोट सहने की पीड़ा की गरिमा की, लेकिन

उलट की वार करने की निंदा की।

हृदय से आपका, रवींद्रनाथ ठाकुर

(स्मरण रहे, कविगुरु ने यह कविता-पत्र अप्रैल 12, 1919 कोलिखा। ठीक एक दिन बाद यानी 13 अप्रैल, 1919 को जालियांवाला बाग़ में जनरल डायर और उसके सिपाहियों द्वारा नरसंहार घटित हुआ!)

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