लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक परिवर्तन का दौर

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गठबंधन के नेता मायावती (दायें) व अखिलेश यादव (बायें)
गठबंधन के नेता मायावती (दायें) व अखिलेश यादव (बायें)
  • डा. राणा एसपी सिंह
डा. राणा एसपी सिंह
डा. राणा एसपी सिंह

लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक परिवर्तन का दौर शुरू हो गया है। चुनाव परिणाम आने के बाद देश की राजनीति में बड़े परिवर्तन दिख रहे हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व बना समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का महागठबंधन टूट गया। हालांकि, यह गठबंधन टिकने वाला नहीं था ही नहीं। इसको लेकर चुनाव से पहले ही सभी को अंदाजा था।

चुनाव से पहले बेमेल एकजुटता का राग अलापने वाले दलों के इस गठबंधन की नियति यही होने वाली थी, यह सभी मान-जान रहे थे। हालांकि, साझा गठबंधन की हार का ठीकरा समाजवादी पार्टी के माथे फोड़ते हुए गठबंधन से अलग होने का निर्णय बसपा ने एकतरफा लिया है। बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो का यह निर्णय दर्शाता है कि विपक्ष की राजनीति समाज में होनेवाले परिवर्तन के मूल मुद्दों और विचारों से भटक गयी है। विचारधारा की अस्पष्टता और दृष्टिकोण में असमानता के साथ जब राजनीतिक गठबंधन सिर्फ सत्ता के लिए अवसरवाद की बुनियाद पर बनते हैं, तो उनका स्वाभाविक हश्र कुछ इसी तरह का होता है।

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भारत की राजनीति को लंबे समय तक प्रभावित करनेवाले नेताओं में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, डॉक्टर राममनोहर लोहिया और पंडित दीन दयाल उपाध्याय प्रमुख हैं। डॉ राममनोहर लोहिया ने राजनीति में सप्तक्रांति का विचार दिया। लोहिया द्वारा दिया गया सप्तक्रांति का विचार सामाजिक परिवर्तन एवं सुधारों की बुनियादी आवश्यकताओं को परिभाषित करनेवाले बिंदु की तरह है। सप्तक्रांति की बात करते हुए डॉक्टर लोहिया ने लैंगिक भेदभाव से मुक्ति तथा स्त्री-पुरुष समानता की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने राजकीय, आर्थिक और मानसिक स्तर पर भेदभाव से मुक्त होने की जरूरत का विचार दिया है।

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सप्तक्रांति के विचारों में जन्मजात रूप से जातिगत पिछड़ापन को सामाजिक समस्या के रूप में चिह्नित करते हुए, इसके निराकरण की बात की गयी है। पैदावार बढ़ाने, पूंजीगत विषमता, आर्थिक असमानता आदि विषयों को डॉ. राममनोहर लोहिया ने अपने विचारों में सही ढंग से रेखांकित किया है।  इन विचारों के जरिये लोहिया की दृष्टि समाज के वंचित और गरीब को न्याय दिला कर समाज और राजनीति की मुख्यधारा में शामिल करने की थी।  किंतु वर्तमान में लोहिया और आंबेडकर के नाम पर राजनीति करनेवाले ऐसे अवसरवादी राजनीतिक दलों का आचरण उनके विचारों से ठीक उलट है। यही कारण है कि समाजवादी पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष राम मनोहर लोहिया की वैचारिक विरासत तो दूर, अपने पिता की राजनीतिक विरासत को भी नहीं सहेज पाये। राजनीति की जो धारा सामाजिक न्याय के उद्देश्य से चली थी, सपा के वर्तमान अध्यक्ष ने उसे संकीर्ण राजनीति का रूप देकर अपने दल का भी नुकसान किया, अपने समाज का भी नुकसान किया और देश की राजनीति में डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचारों का तो सबसे बड़ा नुकसान किया ही।

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यह भी सच है कि राजनीति को केवल किसी एक व्यक्ति या परिवार के सत्ता हितों का साधन बनाकर एक उपकरण की तरह इस्तेमाल करने की इजाजत अब देश की जनता नहीं देने वाली।   महागठबंधन में हुए हालिया घटनाक्रमों में निहित राजनीति ने सिद्ध किया है कि बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो ने खुद को एक जातिवादी अहंकार में कैद कर लिया था और अब भी वे उस अहंकार से खुद को उबार नहीं पा रही हैं।  बाबा साहब आंबेडकर ने उच्च नैतिकता का चुनाव करते हुए सार्वजनिक जीवन जिया, जिसे बहुजन समाज पार्टी प्रमुख ने कभी नहीं अपनाया। मैं मानता हूं कि अनुसूचित जाति के समाज की जो बड़ी समस्याएं हैं, उनसे जुड़ा जो चिंतन है, युवाओं की आकांक्षाएं हैं, उसको भी दरकिनार करने का काम बहुजन समाज पार्टी ने अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के कारण किया है।

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एक बात और गौर करनी होगी कि चुनाव परिणामों का सटीक  आकलन कर पाने में अनेक राजनीतिक विश्लेषक इसलिए चूक गये, क्योंकि उन्होंने इस चुनाव को गठबंधनों के वोट ट्रांसफर का चुनाव मान कर आकलन किया, जबकि यह चुनाव वोट ट्रांसफर का चुनाव नहीं था। यह नये भारत के निर्माण का चुनाव था।  जब केंद्र में कोई सरकार बनती है अथवा केंद्र का चुनाव होता है, तो देश की सुरक्षा, विदेश नीति, अर्थ नीति जैसे मूल मुद्दों पर किसी भी दल का राजनीतिक चिंतन उभर कर आना चाहिए। विपक्ष ऐसे किसी भी चिंतन को रखने का प्रयास करता भी नहीं दिखा।

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इसमें कोई संदेह नहीं कि विचारधारा विहीन और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों से विमुख होकर अगर राजनीति को हमने महज वोट ट्रांसफर के चुनाव में तब्दील कर लिया, तो ये राष्ट्र की नहीं, बल्कि कबीलों की राजनीति बन कर रह जायेगी। लेकिन, एक स्वस्थ एवं परिपक्व लोकतंत्र के रूप में देश ने डॉ. राममनोहर लोहिया, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और दीन दयाल उपाध्याय जैसे विचारकों के चिंतन के अनुरूप गरीब आदमी को ताकत देने की राजनीति को इस देश ने स्वीकार किया है। यह भारत के लोकतंत्र के लिए उत्कर्ष का विषय है। वैसे बेमेल गठबंधन में हाल तक रहे राजनीतिक दलों की बौखलाहट से किसी को निराश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि आज भारतीय जनता पार्टी सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश के गरीबों को सम्मान से जीवन जीने का मार्ग दिखाया है और लगातार इस दिशा में कार्य कर रही है।

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लोग अपनी सहज सामाजिक परंपरा, अपनी वेशभूषा, खान-पान और रहन-सहन जैसी चीजों के साथ नये भारत की आकांक्षा के लिए आगे बढ़ सकते हैं, यह रास्ता भारतीय जनता पार्टी  ने दिखाया है।  वहीं, विपक्षी राजनीतिक दलों की बिखराव की राजनीति यह दिखाती है कि भारत की जनता द्वारा नकारी गयी ताकतें अपना वोट ट्रांसफर न होने से हताश हैं। हर गरीब भी अब भारत निर्माण में अपनी भूमिका के साथ आगे बढ़ रहा है।  राजनीति करते समय हमें महात्मा गांधी की उस ताबीज को याद करना चाहिए, जो उन्होंने देश की दिशा देते हुए ‘सत्तर साल पहले दी थी- ‘जब भी कोई निर्णय लो, तो समाज के अंतिम व्यक्ति का भला कैसे हो सकता है, ये सोच कर निर्णय करो।’

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