महात्मा गांधी के लिए कुर्बान हो गये चंपारण के बतख मियां

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महात्मा गांधी के लिए कुर्बान हो गये चंपारण के बतख मियां
महात्मा गांधी के लिए कुर्बान हो गये चंपारण के बतख मियां
महात्मा गांधी के लिए कुर्बान हो गये चंपारण के बतख मियां नाम के एक शख्स। कम ही लोगों को उनके बारे में और इस बात की जा नकारी होगी। चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर उन्हें याद किया है पुलिस सेवा से अवकाशप्राप्त ध्रुव गुप्त ने।
  • ध्रुव गुप्त

महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर बापू अभी चर्चा में हैं। मैं थोड़ी-सी चर्चा एक अचर्चित व्यक्ति के बारे में करना चाहता हूं। वह शख्स ऐसे थे कि अगर वे न होते तो न गांधी होते और न भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास वैसा होता, जैसा हम जानते हैं। वे शख्स थे चंपारण के ही बतख मियां।

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बात 1917 की है, जब दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद चंपारण के किसान और स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गांधी डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य लोगों के साथ अंग्रेजों के हाथों नीलहे किसानों की दुर्दशा का ज़ायज़ा लेने चंपारण आए थे। चंपारण प्रवास के दौरान जनता का अपार समर्थन उन्हें मिलने लगा था। लोगों के आंदोलित होने से जिले में विधि-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की आशंका थी।

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वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में उन्हें रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। तब बतख मियां इरविन के रसोईया हुआ करते थे। इरविन ने गांधी की हत्या के लिए बतख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। नीलहे किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी। उनकी अंतरात्मा को इरविन का यह आदेश कबूल नहीं हुआ।

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उन्होंने दूध का ग्लास देते हुए राजेन्द्र प्रसाद के कानों में यह बात डाल दी। गांधी की जान तो बच गई, लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों ने उन्हें बेरहमी से पीटा, सलाखों के पीछे डाला और उनके छोटे से घर को ध्वस्त कर कब्रिस्तान बना दिया।

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देश की आज़ादी के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के क्रम में देश के पहले राष्ट्रपति बने डा. राजेन्द्र प्रसाद ने बतख मियां की खोज खबर ली और प्रशासन को उन्हें कुछ एकड़ जमीन आबंटित करने का आदेश दिया। बतख मियां की लाख भाग-दौड़ के बावजूद प्रशासनिक सुस्ती के कारण वह जमीन उन्हें नहीं मिल सकी। निर्धनता की हालत में ही 1957 में उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके दो पोते-असलम अंसारी और ज़ाहिद अंसारी अभी दैनिक मज़दूरी करके जीवन-यापन कर रहे हैं। चंपारण में उनकी स्मृति अब मोतिहारी रेल स्टेशन पर बतख मियां द्वार के रूप में ही सुरक्षित हैं !

(यह लेख चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में बतख मियां की स्मृतियों को सलाम करते लिखी गया था)

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