ममता बनर्जी ने गोटी तो ठीक बिछायी है, पर बीजेपी को पछाड़ पायेंगी !

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बंगाल में लोकतंत्र की जीत हुई है तो अभी चल रहे हिंसा-आगजनी औप हत्याओं के पीछे कौन है? यह सवाल आज की तारीख में काफी मौजू सवाल है।
बंगाल में लोकतंत्र की जीत हुई है तो अभी चल रहे हिंसा-आगजनी औप हत्याओं के पीछे कौन है? यह सवाल आज की तारीख में काफी मौजू सवाल है।

ममता बनर्जी ने गोटी तो ठीक बिछायी है, लेकिन बीजेपी को पछाड़ पायेंगी, यह बड़ा सवाल है। दोनों दल हिन्दुत्व को तरजीह दे रहे हैं। ममता ने पिछले मुकाबले मुसिलम उम्मीदवार डेढ़ दर्जन घटा दिये हैं। बीजेपी तो मुसलिम मतों को अपना मानती ही नहीं। पढ़ें यह रपट…

  • दूरदर्शी 

तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने इस बार चुनाव में पूरी तरह पार्टी का चेहरा बदल दिया है। बीजेपी के हिन्दू कार्ड की काट उन्होंने खोज ली है। ममता ने सबसे पहले सारी सीटों पर एक साथ उम्मीदवारों की घोषणा कर वाम दलों के शासन के जमाने की याद ताजा कर दी, जब सबसे पहले वाम दलों के उम्मीदवार घोषित हो जाते थे और चुनाव आचारसंहिता के पहले दीवारें प्रचार का सस्ता और उम्दा माध्यम बन जाती थीं। प्रचार में भी उम्मीदवारों को आसानी होती। इस बार एक साथ सारे प्रत्याशी ममता ने घोषित तो कर दिये हैं, लेकिन दीवार लेखन का अवसर गंवा दिया।

ममता बनर्जी ने बीजेपी के हिन्दू कार्ड को भी मात देने की कोशिश की है। इस बार 42 मुसलिम उम्मीदवारों को उन्होंने मैदान में उतारा है, जबकि पिछली बार 57 को टिकट दिये गये थे। यानी पिछले मुकाबले टीएमसी में डेढ़ दर्जन मुसिलम उम्मीदवार कम हो गये हैं। इसे बीजेपी के हिन्दू कार्ड की काट के तौर पर देखा जा रहा है।

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पार्टी को ऊर्जावान बनाने के लिए टीएमसी ने 107 ऐसे प्रत्याशी घोषित किये हैं, जिनकी उम्र 50 साल से कम है। अपवाद की गुंजाइश छोड़ दें तो उन्होंने बुजुर्गों और दागियों से भी दूरी बनाने की पूरी कोशिश की है। 17 प्रतिशत दलित मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें भी खासा प्रतिनिधित्व टीएमसी ने दिया है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के 24 उम्मीदवारों को टीएमसी ने टिकट दिया है।

दरअसल ममता बनर्जी पर ये आरोप लगते रहे हैं कि उनकी पार्टी में साफ छवि के लोगों की कमी हो गयी है। उनके शासन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। इसे ही ध्यान में रख कर टीएमसी ने अपनी पूरी रणनीति बनायी है। इसमें चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की बड़ी भूमिका मानी जा रही है। प्रशांत किशोर इस फार्मूले पर साल भर पहले से काम कर रहे थे।

टीएमसी के कुछ लोग कहते हैं कि प्रशांत की इस रणनीति से ही खफा होकर कई बड़े नेता टीएमसी छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गये। मुकुल राय, अर्जुन सिंह के बाद शुभेंदु अधिकारी पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। स्टिंग आपरेशन में इनमें कई के नाम आये थे। इस बार उनके या उनके करीबियों के टिकट कटते या नहीं, लेकिन खतरा भांप कर उन सबों ने पहले ही पार्टी से किनारा कर लिया।

ममता बनर्जी ने महिलाओं पर इस बार ज्यादा भरोसा जताया है। अकेले महिलाओं को 50 सीटें दी गयी हैं। हालांकि पिछले तीन चुनावों से ममता का भरोसा महिलाओं पर बढ़ता रहा है। 2016 में ममता ने 45 महिलाओं को टिकट दिये थे, जबकि उसके पहले 2011 में 31 महिलाओं को मैदान में उतारा था। ममता का मानना है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाएं ज्यादा भरोसेमंद हैं। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगते और पार्टी के प्रति वे वफादार भी होती हैं।

पहाड़ में ममता की पकड़ थोड़ी ढीली हुई थी, लेकिन गोरखा जनमुक्ति मोरचा के प्रभाव को देखते हुए ममता ने उन्हें अपने पाले में कर दार्जिलिंग की 3 सीटें उनके हिस्से में दे दीं। विमल गुरुंग पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए हाल ही सरकार ने उनके खिलाफ दर्ज दर्जनों मामलों को वापस लेने का फैसला लिया था।

ममता की रणनीति हर दृष्टि से कामयाबी दिलाने वाली लगती है, लेकिन जिन लोगों के टिकट ममता ने काटे हैं और वे जिस अंदाज में विद्रोही तेवर अपनाये हुए हैं, उसका फायदा उठाने की भाजपा भरपूर प्रयास करेगी। सूचना के मुताबिक जिस तरह टीएमसी के ऐसे नाराज नेता बीजेपी के आला नेताओं से मिल रहे हैं और ज्वाइन करने की हड़बड़ी में हैं, वह ममता की कोशिशों पर पानी भी फेर सकता है।

अब्बास सिद्दीकी और ओवैसी तो ममता के मुसलिम वोट काटेंगे ही, जिन मुसलिम विधायकों के टिकट ममता ने काटे हैं, वे भी उनके दुश्मन बन कर मैदान में खुद उतरेंगे या ममता के विरोधी की मदद करेंगे। टिकट कटने वाले हिन्दू विधायक भी ममता के खिलाफ ही जाएंगे, जिसकी पूरी कोशिश में बीजेपी लगी हुई है। बीजेपी चाहती है कि हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण हो जाये तो यह उसके लिए फायदे की बात होगी।

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