बेरोजगारी का संकट तो है, पर उलझाइए नहीं, समाधान बताइए

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बेरोजगारी पर बहस नयी नहीं, लेकिन सेन्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट ने बहस को नया जीवन दे दिया है।
बेरोजगारी पर बहस नयी नहीं, लेकिन सेन्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट ने बहस को नया जीवन दे दिया है।
  • अनिल भास्कर

बेरोजगारी पर बहस नयी नहीं, लेकिन सेन्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट ने बहस को नया जीवन दे दिया है। हर कोई इसके डेटा का अपने-अपने नज़रिए से विश्लेषण कर रहा है जो स्वाभाविक भी है। मगर एक धड़ा जिस तरह इसमें सिर्फ केंद्र सरकार की विफलता की तस्वीर देख रहा है या दिखाने की कोशिश कर रहा है, उसकी प्रमाणिकता पर भी चर्चा जरूर होनी चाहिए। यह भी समझने की कोशिश होनी चाहिए कि कहीं यह कवायद भी किसी राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा तो नहीं।

इस धड़े के एक विद्वान ने अपने पोस्ट में जनता पर इस बात के लिए खीज निकली है कि वह बेरोजगारी का दंश झेलने के बावजूद मोदी सरकार की आलोचना क्यों नहीं कर रही? कथित गोदी मीडिया इस मुद्दे पर केंद्र सरकार से जवाब नहीं मांग रहा तो उसका बहिष्कार क्यों नहीं कर रही? उसे नौकरी जाने या तनख्वाह/आमदनी आधी रह जाने के बावजूद कोई फर्क क्यों नहीं पड़ रहा? ऐसी विषम परिस्थितियों में भी वह बेपरवाह क्यों है और मस्त रहकर मोदी मीडिया सेल के कथित प्रोपगेंडा टूल का वाहक क्यों बनी हुई है? ऐसे ही जाने कितने सवाल। पर लब्बोलुआब यही कि यदि तुम सरकार विरोध में नहीं तो कटघरे में आ गए हो।

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खैर, इन सवालों की सच्चाई पर चर्चा आगे कर लेंगे। पहले रिपोर्ट की सच्चाई को अपने नज़रिए से समझने की कोशिश कर लेते हैं। फौरी तौर पर रिपोर्ट कहती है कि कोरोना काल में बेरोजगारी दर शीर्ष को छूने के बाद गिरकर उस स्तर से भी नीचे आ गई है जहां पिछले साल की शुरुआत में लॉकडाउन से पहले थी। सीएमआईई के मुताबिक कल 21 मार्च को यह 6.53% आंकी गई जबकि मार्च 2020 में यह 8.75% थी। मार्च 2020 के अंतिम हफ्ते में लॉकडाउन लगाए जाने के बाद देशभर में मचे कोहराम के बीच अप्रैल में यह 23.52% के उच्चतम स्तर पर जा पहुंची थी। जाहिर है स्थिति बदतर नहीं, बेहतर हुई है। (पुष्टि के लिए सीएमआईई की उक्त रिपोर्ट का स्क्रीनशॉट संलग्न है)

दूसरी बात, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिये कि बेरोजगारी सिर्फ केंद्र सरकार का मसला नहीं। राज्य सरकारें भी इसके लिए बराबर की जिम्मेदार होती हैं। अब जरा उन राज्यों पर गौर कर लेते हैं जहां फरवरी 2021 में बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा दर्ज की गई है। सीएमआईई की उसी रिपोर्ट के मुताबिक हरियाणा 26.4% के साथ शीर्ष पर है तो उसके बेहद करीब राजस्थान (25.6%) है। इसके बाद गोवा (21.1%) और फिर हिमाचल प्रदेश (15.1) का स्थान है। झारखंड 12.1% के साथ अगली पायदान पर है। इसके बाद बिहार और त्रिपुरा का नंबर आता है जहां यह दर क्रमशः 11.5 और 11.1% है।  बाकी सभी राज्यों में यह दर अब भी इकाई में ही बताई गई है। अब सर्वाधिक बेरोजगारी दर वाले सात राज्यों में से तीन में गैर भाजपा सरकारें हैं। एक में कांग्रेस, दूसरे में कांग्रेस गठबंधन और तीसरे में सीपीएम की। लेकिन यह क्या कम आश्चर्यजनक है कि जब भी बेरोजगारी पर चर्चा होती है, सवालों के घेरे में सिर्फ केंद्र सरकार होती है। मुमकिन है ऐसा राजनीतिक एजेंडे के तहत होता हो।

कोरोना ने अन्य प्रभावित देशों की तरह निश्चित तौर पर हमारी अर्थव्यवस्था को भी गहरी चोट पहुंचाई है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार विकास संगठन (अंकटाड) ने अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के हवाले से बताया है कि कोरोना संकट ने दुनियाभर में सिर्फ संगठित क्षेत्र में ही लगभग साढ़े 25 करोड़ रोज़गारों का नुक़सान किया है। पिछले साल अगस्त में सीएमआईई ने ही अनुमान जयाता था कि कोरोना के चलते देश में करीब 1.90 करोड़ लोगों ने रोजगार खोया है। उस समय देश में बेरोजगारी दर 8.5% थी। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि परिस्थितियां किस दिशा में बढ़ रही हैं।

फिर भी ऐसा नहीं कि जिन लोगों ने कोरोनाकाल में नौकरी या रोजगार गंवाया है, या जो दशकों से बेरोजगारी के आंकड़ों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते आए हैं उनकी समस्याओं को दरकिनार कर दिया जाना चाहिए या उन्हें जल्द से जल्द राहत की कोशिश नहीं होनी चाहिए। ऐसे करोड़ों लोगों के लिए निःसन्देह ये संकट के दिन हैं। लेकिन सवाल यह कि क्या बेरोजगारी के शिकार जनसमूह को रोते हुए डिप्रेशन में चले जाना चाहिए? या फिर चिल्लाते हुए स्टेट बॉर्डर पर तने तंबुओं में? जैसी अपेक्षा ऊपर उल्लिखित विद्वान की पोस्ट से झलकती है। वे शायद यह भूल रहे कि संकट जब देशव्यापी हो तो संयम के साथ उस संकट समाधान में हर किसी को अपनी भूमिका तलाशनी चाहिये, उसे निभाना चाहिए। सिर्फ राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व को कोसने से न समाधान निकलने वाला है और न ही संकट से मुकाबले के लिए आत्मबल का विस्तार। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लेख में उनके निजी विचार है)

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