बेगूसराय से JNU वाले कन्हैया कुमार होंगे महागठबंधन के उम्मीदवार

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बेगूसराय। अभी तक CPI और बिहार के महागठबंधन खेमे की आम राय है कि JNU छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार बेगूसराय से चुनाव लड़ेंगे। पिछले चुनाव में अर्से बाद भोलानाथ सिंह भाजपा के टिकट पर जीते थे। RJD के उम्मीदवार 58000 वोटों से दूसरे स्थान पर रहे। यानी महागठबंधन में भी बेगूसराय राजद के कोटे की सीट है। राजद ने कन्हैया के लिए यह सीट छोड़ देने का वादा किया है। CPI के हवाले से टाइम्स आफ इंडिया ने इसकी पुष्टि भी की है।

कन्हैया के इलाके के ही हैं अमरदीप झा गौतम। वह पटना में एलिट इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं। श्री झा बिहार के बेगूसराय के राजनीतिक परिदृश्य पर साझा कर रहे हैं अपनी बातः

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मेरी मातृभूमि बेगुसराय है। अगर आप बेगुसराय या बिहार की राजनीति को भारत के परिदृश्य में बारीकी से समझते हैं या समझना चाहते हैं तो यह लेख आपको एक अलग दृष्टि दे पाने में समर्थ हो सकता है। मेरी व्यक्तिगत छवि और जीवन-शैली एक शिक्षक की है, परंतु वर्तमान परिस्थिति और राजनीति में नवागांतुक उन्माद को देखते हुए कुछ लिखने को बाध्य हूँ। जेएनयू के छात्र-संघ के अध्यक्ष  कन्हैया कुमार को लेकर लोगों के मतांतर के बीच यह लेख अपनी आवश्यकता प्रदर्शित करता है।

बेगूसराय बिहार का ऐसा एक जिला है, जो पूरे विश्व में कम्युनिस्टों के गढ़ के रूप में दिखा और यही कारण है कि इसे लेनिन-ग्राद के रूप में जाना जाता रहा। एक ऐसा भारत-खंड, जिसकी बहुसंख्यक आबादी अखंडित ब्राह्मणों (ब्राह्मण और भुमिहार) की है, जो अपने बुद्धिबल, साहस और निडरता की ऐतिहासिक विरासत समेटे हुए हैं।

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बिहार-केशरी श्रीकृष्ण सिंह के द्वारा महात्मा गांधी आहूत नमक-सत्याग्रह आंदोलन की अगुवाई से लेकर स्वतंत्र भारत के सुलझे नेता के रूप में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री होने और बार-बार निर्वाचित होने के बावजूद अपने प्रतिद्वन्द्वी श्री अनुग्रह नारायण सिंह की मुक्त-कन्ठों से  प्रशंसा करने वाले शख्सियत के अतुलनीय प्रयास का फल रहा कि बरौनी रिफाइनरी, बरौनी फर्टिलाइजर, बरौनी थर्मल के साथ-साथ दर्जनो कारखानों की वजह से मिथिलांचल, अंगप्रदेश और मगध का यह सीमांचल-प्रदेश बेगुसराय बिहार की औद्योगिक-राजधानी के कारण भारत में अपना स्थान रखता है।

ठेकेदारी और रंगदारी के कारण आपसी रंजिश और अस्थिर माहौल के कारण बिहार के आपराधिक और राजनीतिक उठापटक में इसकी मुख्य भूमिका रही, पर कम्युनिस्टों की अपनी पकड़ हमेशा रही, जिसका प्रमाण शत्रुधन प्रसाद सिंह सरीखे जमीन से जुडे नेता रहे।

जब 90 के दशक के अंत में कम्युनिस्टों के अंत की आधारशिला हुई तो यादव, कुर्मी, दलित और मुसलमान को लेकर लालू और काँग्रेस के गंठजोड़ ने भ्रामक वातावरण तैयार किया, जिसकी भेंट कम्युनिस्टों के साथ बेगुसराय की अगड़ी जातियों का वर्चस्व भी हो गया और कालान्तर में अन्य पिछडी जातियों और मुसलमानों ने बेगुसराय को भाजपा और जदयू के नाम पर हथियाने की कोशिश की और बहुत हद तक सफल भी रहे।

ये हथकंडा भूमिहारों को नागवार गुजरा और इन्होंने खुद को राष्ट्रीय दलों के अलावा क्षेत्रीय दलों में अपनी पैठ बनाकर अपनी विरासत को बनाकर रखना चाहा और बहुत हद तक कामयाब भी रहे। यही कारण है कि किसी भी दल के भूमिहार नेता बेगुसराय में बिहार के किसी भी दूसरे प्रान्त की तुलना में ज्यादा अपनत्व अनुभव करते हैं  ।

पिछले 15 वर्षों के राजनैतिक उठापठक में नीतीश कुमार को समर्थन देने के लिये अन्य जातियों के साथ खुद नीतीश कुमार को सत्तासीन करने के बावजूद नरेन्द्र मोदी और भाजपा को एकमुस्त वोट देने वाला यह बौद्धिक वर्ग 2015 बिहार विधानसभा में आपसी कलह और क्षद्म-राजनैतिक दुराग्रहों के कारण सभी तरह के सियासी अटकलों के बीच यादवों और मुसलमानों को अनायास अभयदान देते हुए राजद और काँग्रेस को संजीवनी देने का काम किया। इसकी अपेक्षा किसी राजनीतिक-पंडित को भी नहीं थी।

दो साल पहले लगातार ‘बेगुसराय’ नामक एक धारावाहिक प्रसारित किया जा रहा था, जिसको देखने से बेगुसराय की जो छवि बनती, वो फ़िल्मी है और वर्तमान व हकीकत से बिल्कुल अलग है, पर अतीत से अछूति नहीं कह सकते। कुछ महीनों पहले एबीपी न्यूज ने अपने प्राइम टाइम में बेगुसराय का जो आलेख प्रस्तुत किया, वह वर्तमान बेगुसराय को लेकर नहीं था, बल्कि पूर्वाग्रहग्रस्त था।

जेएनयू विवाद में राष्ट्रद्रोह का आरोपी जेएनयू अध्यक्ष कम्युनिस्ट पार्टी का नेता  कन्हैया कुमार बेगुसराय के बिहट गाँव का रहने वाला है, जो उमर खालिद और अरबान भट्टाचार्या के कार्यक्रम का समर्थक था, जिसमें भारत की अखंडता के विरुद्ध जो नारे लगे, वह अविस्मरणीय हैं। कन्हैया की गिरफ्तारी से बेगुसराय में पसरी उदासी और उसके अंतरिम जमानत पर जोरों की आतिशबाजी कम्युनिस्टो की बुझती आग को हवा तो देती ही है और साथ ही उन इरादों को बल भी देती है, जो नरेंद्र मोदी, भाजपा और हिंदुत्व जैसे मुद्दों को उठने से सशंकित हैं, ऐसे भाजपा-विरोधी ताकतों का एकजुट होना लाजिमी है।

न्यायालय के द्वारा अंतरिम जमानत देते हुए जज का वर्तमान स्थिति के प्रति दुख जताना और कन्हैया को हिदायत देना, फ़िर भी कन्हैया का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति अभद्रतापूर्वक संबोधन करना एक गंभीर चिंता का विषय है।

राजनेताओं के द्वारा मनोबल के साथ-साथ धन और राजनीतिक सम्बल देना, वर्तमान में कन्हैया को ऊर्जा तो दे रहा है, पर अतीत की गलतियों से यही प्रतीत होता है कि कहीं ये सिर्फ भाजपा-विरोधी गुट के प्यादे के रूप में बनकर ना रह जाये।

लेफ्ट-पार्टियों के साथ-साथ समाजवाद का झंडा उठाने का रसूख रखने वाली पार्टियाँ कन्हैया को शह सिर्फ इस कारण दे रही हैं या उसका लाभ उठाना चाहती है, क्योंकि इसमें दलित-मजदूर और अभावग्रस्त का नाम लेकर मोदीफोबिया से अलग करने की दवा दिखती है, जिससे उनलोगों का मार्ग निष्कंटक हो जाये।

अगर 2019 के लोकसभा-चुनाव में कन्हैया कुमार को बेगूसराय से सांसद-उम्मीदवार बनाया जाता है तो यह भारतीय राजनीति का वह चेहरा होता होगा, जो राजनीतिक-धारा को प्रबल-वेग से अपनी मनमानी और खुदगर्जी से जोड़ने का प्रयास जैसा स्वरूप ले सकता है। वैसे, कन्हैया मोदी-विरोधियों के लिये एक रामबाण है, जो आज के उत्तेजक मोदी-महिमा को उसी भाषा में जवाब देता है ।

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