बिहार में नीतीश कुमार की गायब हुई जमा पूंजी, अब आगे क्या होगा

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मजार पर चादर चढ़ाने जाते नीतीश कुमार (फाइल फोटो)

पटना। नीतीश कुमार की किस्मत कहें कि करिश्मा, वे निचले पायदान पर हमेशा रहे, लेकिन सत्ता का सुख उनके कदम चूमता रहा। कभी अटल बिहारी वाजपेयी की कृपा बरसी तो कभी खूद की कमाई पूंजी काम आई। क्या रही है उनकी पूंजी और क्या स्थिति है फिलहाल उनकी जमा पूंजी की, यह सवाल फिलवक्त काफी मायने रखता है। इसलिए कि उनका पहला एसिड टेस्ट आसन्न लोकसभा चुनाव में होना है।

नीतीश को जानने-समझने वाले मानते हैं कि उनकी राजनीतिक सफलता की धुरी नरेंद्र मोदी का विरोध रही है। गुजरात दंगे में मोदी की भूमिका उनको इतनी नागवार गुजरी थी कि उन्होंने बाढ़ राहत के लिए नरेंद्र मोदी द्वारा भेजे गयी मदद लौटा दी थी। उनके साथ आयोजित भोज ऐन वक्त पर रद्द कर दिया था। इतना ही नहीं, भाजपा ने गोवा अधिवेशन में जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का चेहरा बनाने का प्रस्ताव पारित किया तो वर्षों से बिहार में भाजपा के साथ सरकार चला रहे नीतीश कुमार ने झटके से रिश्ता तोड़ लिया। इसका साफ संदेश मोदी से खुन्नस खाये मुसलमानों में गया और हाशिये पर चल रहे लालू प्रसाद के राजद और बिहार में अंतिम सांसें गिन रही कांग्रेस के बजाय नीतीश कुमार का जदयू बिहार की आबादी में 16 प्रतिशत हिस्सेदारी का दावा करने वाले मुसलमानों की पहली पसंद में शुमार हो गया।

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सामाजिक न्याय के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने वाले लालू प्रसाद के राजद को पटकनी देने के लिए नीतीश कुमार ने दलित-महादलित का विभाजन कर इस वर्ग के लोगों को विशेष तरजीह देनी शुरू की। जीतन राम मांझी को कुछ दिनों के लिए अपना उत्तराधिकारी बना कर उन्होंने यही संदेश देने की कोशिश की कि वे 10 प्रतिशत आबादी का दावा करने वाले दलितों के हितैषी हैं।

स्कूली बच्चियों को पोशाक और साइकिल मुफ्त बांट कर नीतीश कुमार ने हर घर में घुसने की कोशिश की। हर घर में बच्चे प्रिय होते हैं और माता-पिता वैसे किसी भी व्यक्ति के साथ खड़े होते हैं, जो उनकी संतान की चिंता करता है। यानी हर घर से (कुछ अपवाद छोड़ कर) नीतीश का वोट पक्का हो गया।

खुद की बिरादरी के वोटों का निर्विवाद ठेकेदार बनने के लिए उन्होंने उपेंद्र कुशवाहा को ठिकाने लगा दिया। भाजपा के संगी-साथी बने रहने के कारण उसके पारंपरिक 10 फीसद से भी कम सवर्ण वोटरों का भी सहयोग लेने में भी कामयाब रहे।

इस तरह नीतीश की राजनीति का सिक्का बिहार में चलता रहा है। लेकिन हालात काफी बदल गये हैं। इसका संकेत नीतीश कुमार भी समझ रहे हैं। वोटों की अपनी विरासत बचाने की जुगत में वह जी-जान से जुटे हैं। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस में न वह शामिल हुए और न जदयू का कोई आदमी। उल्टे वह मुसलमानों की इफ्तारी में शामिल होते रहे। एनुसूचित जाति-जनजाति के बच्चों की शिक्षा के लिए उन्होंने सरकारी खजाना खोल दिया है। हर घर में प्रवेश के लिए एजुकेशन लोन की व्यवस्था कर दी है।

पर, कितना कारगर होगा उनका नया नुस्खा, यह समय बतायेगा। इतना तो तय है कि अब तक की अर्जित अपनी जमा-पूंजी उन्होंने दांव पर लगा दी है। नरेंद्र मोदी की तारीफ में  कशीदे पढ़ने वाले मुसलमान क्या उनका साथ देंगे। दलित वोटर क्या जीतन राम मांझी के साथ हुए बर्ताव को भूल जायेंगे। दारूबंदी के शिकार होकर जेलों में पड़े सवा लाख दलित-पिछड़े क्या अपना दर्द भूल पायेंगे।

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