बिहार में तन गईं हैं सियासी तलवारें, बस अब वार का है इंतजार

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बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के अंदर सब कुछ ठीकठाक नहीं है। हाल के दिनों में कई ऐसे संकेत मिले हैं, जिससे यह अनुमान लगाना आसान है कि लोकसभा चुनाव की घोषणा होने तक राजग में दरार पड़ जायेगी। खासकर जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) और भाजपा के रास्ते अलग-अलग हो जायेंगे। दूसरे घटक दल, जिनका बिहार से रिश्ता है, वे भी अलग राह अपना लें तो कोई आश्चर्य नहीं।

नीतीश ने भले यह बात कई मौकों पर कही हो कि 2019 में नरेंद्र मोदी ही अगले प्रधानमंत्री होंगे, लेकिन अंदर से वह मोदी को पचा नहीं पा रहे हैं। 2009 का विधानसभा चुनाव नीतीश ने बिहार में नरेंद्र मोदी के विरोध की बिना पर जीता था। गुजरात का सीएम रहते नरेंद्र मोदी ने बाढ़ राहत कोष में जब पैसे भेजे और बिहार के अखबारों में इसका इश्तेहार छपवाया तो नीतीश इस कदर भड़के थे कि न सिर्फ मोदी का पैसा वापस किया, बल्कि मोदी के सम्मान में आयोजित भोज भी उन्होंने रद्द कर दिया। उन्होंने मोदी को चुनाव प्रचार में आने से रोक दिया था। तब भी भाजपा के साथ ही नीतीश सरकार चला रहे थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी नीतीश ने मोदी का विरोध किया, बल्कि मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किये जाने के विरोध में उन्होंने भाजपा से रिश्ता तोड़ लिया। 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव तो बिल्कुल मोदी के खिलाफ नीतीश ने राजद के साथ महागठबंधन बना कर लड़ा। मोदी का विरोध ही नीतीश की ताकत रही है।

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हाल की कुछ घटनाओं पर गौर करें तो यह बात साफ हो जायेगी कि भाजपा के साथ जदयू के रिश्ते बिगड़ने की शुरुआत हो चुकी है और लोकसभा चुनाव आते ही स्थिति साफ हो जायेगी।

नीतीश ने हाल ही में कहा था कि क्राइम, करप्शन और कम्युनलिज्म से कोई समझौता नहीं करेंगे। जाहिर-सी बात है कि कम्युनलिज्म के आरोप अकेले भाजपा पर ही लगते रहे हैं। इसके तुरंत बाद नीतीश ईद के दौरान नमाजियों के संग कहीं नमाज पढ़ते दिखे तो कई बार मजारों पर चादरपोशी करते नजर आये। असम नागरिकता बिल का उन्होंने विरोध किया और इस बारे में प्रधानमंत्री को चिट्ठी भी लिखी। नरेंद्र मोदी की कोशिश से योग को अंतरराष्ट्रीय महत्व मिला है, यह सभी जानते हैं। इसके बावजूद राजग में रह कर न सिर्फ नीतीश योग के कार्यक्रम से अलग रहे, बल्कि जदयू के लोगों ने योग दिवस से खुद को दूर रखा। विशेष राज्य के दर्जे की मांग फिर से उठा कर नीतीश ने अपनी नयी चाल भी चल दी है।

दरअसल नीतीश की चिंता इस बात को लेकर है कि जिस तरह उपचुनावों के परिणाम भाजपा के खिलाफ आ रहे हैं, कश्मीर में जिस तरह भाजपा ने पीडीपी से गठबंधन तोड़ा है, संभव है कि इसका खामियाजा नीतीश को भी भोगना पड़े। इसलिए अल्पसंख्यक मोह उनका जाग गया है। पिछले चुनावों में उनकी नैया पार लगाने में अल्पसंख्यक वोटों का खासा योगदान रहा है।

नीतीश की तल्खी उजागर तब हुई, जब बेमौसम जदयू नेताओं ने अगले चुनावों में नीतीश को राजग का चेहरा बनाने की मांग की। जाहिर है कि भाजपा नरेंद्र मोदी को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होगी। इससे भी बड़ा पेंच चुनाव के वक्त सीटों के बंटवारे को लेकर है। जदयू के सिर्फ दो सांसद हैं और भाजपा के 22। ऐसे में सीटों के बंटवारे को लेकर घमासान तो होगा ही। जदयू को इस बात की भी चिंता है कि कहीं समय पूर्व लोकसभा के चुनाव के साथ बिहार विधानसभा के चुनाव भाजपा न करा दे। ऐसा उसके लिए आसान होगा। जदयू सरकार से समर्थन वापस होते ही नीतीश सरकार गिर जायेगी और लोगसभा चुनाव के साथ बिहार विधानसभा का चुनाव भी भाजपा करा लेगी। राजग के दोनों घटक इस बात को बेहतर समझते हैं। इसलिए अंदरखाने सभी चुनाव की तैयारी अपने-अपने हिसाब से करने लगे हैं। भरोसेमंद सूत्रों के मुताबिक हालात में कोई चमत्कारिक परिवर्तन न हो तो नवंबर तक जदयू और भाजपा की राह अलग होगी।

  • दीपक कुमार  

 

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