बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर के विजयोत्सव को याद करने का दिन

0
831
बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर के विजयोत्सव का याद करने का दिन है 23 अप्रैल। वीर कुंवर सिंह के विजय की अनकही-अनसुनी कहानी पढ़िए।
बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर के विजयोत्सव का याद करने का दिन है 23 अप्रैल। वीर कुंवर सिंह के विजय की अनकही-अनसुनी कहानी पढ़िए।
  • सुरेंद्र किशोर

बाबू कुँवर सिंह तेगवा बहादुर के विजयोत्सव का याद करने का दिन है 23 अप्रैल। वीर कुंवर सिंह के विजय की अनकही-अनसुनी कहानी पढ़िए। हर साल 23 अप्रैल को वीर कुंवर सिंह का विजयोत्सव मनाया जाता है। सब जानते हैं कि उस दिन अंग्रेजों के साथ युद्ध में कुंवर सिंह की सेना विजयी रही। पर पराजित अंग्रेजों की सेना का क्या हाल रहा, वह एक अंग्रेज अफसर की जुबानी सुनिए।

बाबू कुँवर सिंह के बारे में यह विवरण पंडित सुंदर लाल ने अपनी मशहूर पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ के दूसरे खंड के पेज नंबर- 930 पर दर्ज किया  है। ‘‘वास्तव में इसके बाद जो कुछ हुआ, उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है। लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू किया। शत्रु बराबर हमें पीछे से पीटता रहा। हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे। एक निकृष्ट गंदे छोटे से पोखर को देखकर वे घबरा कर उसकी तरफ लपके। इतने में कुंवर सिंह के सवारों ने हमें पीछे से आ दबाया।

- Advertisement -

इसके बाद हमारी जिललत की कोई हद न रही। हमारी विपत्ति चरम सीमा को पहुंच गई। हम में से किसी में शर्म तक न रही। जहां जिसको कुशल दिखाई दी, वह उसी ओर भागा। अफसरों की आज्ञाओं की किसी ने परवाह नहीं की। व्यवस्था और कवायद का अंत हो गया।

यह भी पढ़ेंः कोरोना बेकाबू रहा तो बिहार में समय पर चुनाव कराना चुनौती !

चारों ओर आहों, श्रापों और रोने के सिवा कुछ सुनाई न देता था। मार्ग में अंग्रेजों के गिरोह के गिरोह मारे गए। किसी को दवा मिल सकना भी असंभव था। क्योंकि हमारे अस्पतालों पर कुंवर सिंह ने पहले ही कब्जा कर लिया था। कुछ वहीं गिर कर मर गए। बाकी को शत्रु ने काट डाला। हमारे कहार डोलियां रख-रख कर भाग गए। सब घबराए हुए थे,सब डरे हुए थे। सोलह हाथियों पर सिर्फ हमारे घायल साथी लदे हुए थे।

यह भी पढ़ेंः मीडिया हाउस प्रधानमंत्री की अपील के बाद भी संवेदना नहीं दिखा रहे !

स्वयं जनरल लीग्रैंड की छाती में एक गोली लगी और वह मर गया। हमारे सिपाही अपनी जान लेकर पांच मील से ऊपर दौड़ चुके थे। उनमें अब अपनी बंदूक उठाने तक की शक्ति नहीं रह गयी थी। सिखों को वहां की धूप की आदत थी। उन्होंने हमसे हाथी छीन लिए और हमसे आगे भाग गए। गोरों का किसी ने साथ न दिया। 199 गोरों में से 80 इस भयंकर संहार से जिंदा बच सके। हम वहां केवल वध के लिए गए थे। इतिहास लेखक ह्वाइट लिखता है कि ‘इस अवसर पर अंग्रेजों ने पूरी और बुरी हार खाई। अंग्रेजी सेना की सब तोपें और असबाब कुंवर सिंह के हाथ आ गये।

इस युद्ध की पृष्ठभूमि का वर्णन पंडित सुंदर लाल ने इन शब्दों में किया है, ‘22 अप्रैल को राजा कुंवर सिंह ने फिर जगदीशपुर में प्रवेश किया। कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह ने पहले से कुछ स्वयंसेवकों का एक दल कुंवर सिंह की सहायता के लिए जमा कर रखा था। जगदीशपुर पर फिर से कुंवर सिंह का कब्जा हो गया। आरा के अंग्रेज अफसर चकित हो गए।

यह भी पढ़ेंः इतिहास के आईने में बिहारः सुगांव डायनेस्टी और विद्यापति 

23 अप्रैल को लीग्रैण्ड के अधीन कम्पनी की सेना जगदीशपुर पर दोबारा हमला करने के लिए आरा से चली। आठ महीने कुंवर सिंह और उनकी सेना के लगातार संग्राम और कठिन यात्रा में बीते थे। जगदीशपुर पहुंचे उसे 24 घंटे भी न हुए थे। कुंवर सिंह का दाहिना हाथ कट चुका था। उनके पास सेना भी एक हजार से अधिक न थी। उसके मुकाबले में लीग्रैण्ड की सेना सुसज्जित और ताजा थी। तोपें भी इस सेना के साथ थीं। कुंवर सिंह के पास उस समय कोई तोप नहीं थी।

जगदीशपुर से डेढ़ मील के फासले पर लीग्रैण्ड और कुंवर सिंह की सेना में संग्राम हुआ। लीग्रैण्ड की सेना में कुछ अंग्रेज और अधिकांश सिख थे। किंतु मैदान पूरी तरह कुंवर सिंह के हाथों रहा।

यह भी पढ़ेंः पुरषोत्तम से हारते नहीं तो गजल गायक नहीं बन पाते जगजीत सिंह

- Advertisement -