बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले ‘बंगाली-बिहारी’ मुद्दे को हवा

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी
  • सुनील जयसवाल

बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले ‘बंगाली-बिहारी’ मुद्दे को हवा मिल रही है। हवा दे रही हैं बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। ‘दीदी’ यानी ममता बनर्जी। उनका गुस्सा इन दिनों चरम पर है। समझ से परे है कि एक ब्राह्मण कन्या होने का बावजूद उन्हें “जय श्री राम” के नारे से आपत्ति क्यों है? यदि वे यह साम्प्रदायिक है तो जब वे खुद किसी मुस्लिम एदारा या मजलिस या फिर राजनीतिक रैलियों के दौरान “ला इलाही, इल लिल्लाहो, मोहम्मदे रसूलल्लाह” और क़ुरआन की कुछ आयतों का बगैर अटके एक स्वर में पाठ करती हैं तो वह क्या साम्प्रदायिक नहीं है? यही सवाल ममता की ताकत भी है और बंगाल में खिसकती उनकी जमीन का कारण भी।

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इस्लामिक स्त्रोतों के अलावा उस वक्त उनकी बांगाली साड़ी भी कंधे से उठकर ख़ास तरीके से सर ढकते हुए कानों के कोरों में फंसी होती है। दोनों हाथों की हथेलियां आपस में जुड़ कर दुआ मांगती अन्दाज में उठी रहती हैं, क्यों? क्या यह साम्प्रदायिक और मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए नहीं होता। अगर बात सेक्युलरिज्म की है तो किसी भी लोकतांत्रिक दल या सरकार को किसी एक धर्म विशेष को तरजीह देने और दूसरे धर्म की अवहेलना का अधिकार नहीं होता। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह कदापि नहीं है कि केंद्र अथवा राज्य सरकार दोहरा चरित्र और मानसिकता का तानाबाना बुने। राजनीति में धर्म का सम्मिश्रण चुनावी रणनीति के लाभ-हानि के गणित पर करे।

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लोकसभा चुनाव में मोदी-शाह (नरेंद्र मोदी-अमित शाह) जोड़ी की लगातार रैलियों और जनसभाओं में लगाये गए जय श्रीराम के नारे अभी पश्चिम बंगाल की फिजा में तैर रहे हैं। आलम यह है कि दीदी का काफिला कोलकाता के आसपास के सब अर्बन एरिया के जिस किसी इलाके  या सड़क से गुजरता है, एक आवाज आती है- “जय श्रीराम” और बस दीदी का गुस्सा फूट पड़ता है। अचानक मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का काफिला रुक जाता है। ममता बनर्जी कार के अगले गेट का दरवाजा खोल कर उतरती हैं और अपने सुरक्षा घेरे को तोड़ते सड़क के किनारे खड़े लोगों की तरफ आक्रामक तेवर के साथ बढ़ जाती हैं और ललकारती दिखती हैं-  “अरे! आय-आय पालाचीस केनो।” ( अरे आ, आओ! भागते क्यों हो)। सुरक्षा बल सक्रिय हो जाते हैं और सड़क पर खड़े स्थानीय लोगों को नारा नहीं लगाने की हिदायत देते हैं। मगर तभी भीड़ के बीच से कोई फिर जय श्रीराम का नारा लगा देता है।

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अब तौ सूचना यह मिल रही है कि ममता ने इंटेलीजेंस एजेंसियों को कहा है कि वैसे लोगों की पहचान करें, जो जय श्री राम का नारा लगाते हैं। हालांकि यह मुश्किल है, लेकिन पुलिस ने वैकल्पिक व्यवस्था सोच रखी है। इसके तहत ममता बनर्जी का काफिला जहां से गुजरेगा, वह सड़क खाली करा दी जाएगा या फिर उनके आने-जाने का रास्ता बदल दिया जाएगा। लेकिन यह कोई स्खायी समाधान नहीं है।

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30 मई 2019 को उत्तर 24 परगना के भाटपाड़ा के कांकिनाड़ा की एक जुट मिल के पास यही नजारा देखने को मिला। इस बार दीदी का गुस्सा 18 लोकसभा सीट गवांने के बाद थोड़ा ज्यादा ही बढ़ा हुआ था। इस बार दीदी ने नारा लगाने वालों को ‘ भागते कहां हो’ से ऊपर उठ कर बाहरी गुंडातत्व के साथ ही “बांगाली-बिहारी” सम्बोधन को भी इंगित कर डाला। उन्होंने एक न्यूज चैनल के बूम पर यह कहते हुए अपने गुस्से का इजहार किया कि भाजपा ने बाहरी अपराधियों को बुला रखा है। साथ ही यह जोड़ने से गुरेज़ नहीं किया कि भाजपा बांगाली और गैर बंगाली समुदाय के बीच भेद पैदा कर रही है।

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एक तरह से यह मानने से इनकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले विधानसभा चुनाव तक बंगाल में एक बार फिर यूपी-बिहार और राजस्थान की बड़ी आबादी को टारगेट करते हुए स्थानीय बांगाली और गैर बांग्लाभाषी के बीच प्रांतवाद को हवा दी जाए। उल्लेखनीय है कि दो दशक पूर्व “आमरा बंगाली”  वाम शासन काल में एक भाषायी सह प्रांतवाद की आवाज कुछ लोगों के एक संगठन ने उठायी थी। संगठन के लोग कोलकाता के बड़ा बाजार, लेनिन सारणी, चितपुर, मछुआ बाजार, सियालदह,  एपीसी रोड, धर्मतला, पार्क स्ट्रीट और हावड़ा के मुख्य बाजारों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों और दुकानों पर लगे हुए हिंदी साइनबोर्ड पर कालिख पोत देते थे। सियालदह और हावड़ा लाइन के रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्म पर लगे स्टेशनों के नाम पट्टिकाओं पर हिंदी लिपि पर कालिख पोत कर ‘आमरा बंगाली’ का स्लोगन लिख देते थे।

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उस दौर में सीपीएम का बंगाल में एकतरफा वर्चस्व था। यह संगठन भी वामदल समर्थित था। इसके बावजूद ज्योति बसु की सरकार ने इस पर काफी हद तक अंकुश लगाए रखा। उसे कभी भी उग्र होने नहीं दिया। बंगाली-बिहारी के बीच प्रांतवाद के नाम पर हिंसा नहीं होने दिया। सनद रहे कि पश्चिम बंगाल में गैर बांगला भाषी, स्थायी निवासी के तौर पर यूपी, बिहार, राजस्थान के हिंदी भाषा भाषियों की जनसंख्या कुल आबादी की 40 प्रतिशत के करीब है। जिसमें भारतीय मुस्लिम समुदाय भी शामिल है। जूट मिल उद्योग व अन्य कुछ प्रतिष्ठानों की बदहाली के कारण कुछ लोग कम जरूर हुए हैं। इसके बावजूद यह आबादी कोलकाता-हावड़ा और उससे सटे सब अर्बन शहरी व कस्बाई क्षेत्रों में इतना असर रखती है कि सरकार गठन में इनकी 30 फीसदी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

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ममता बनर्जी को कांग्रेस पार्टी से अलग होने के बाद 1999 के दशक में “अग्निकन्या” की उपाधि अटल बिहारी वाजपेयी की केंद्र में बनी सरकार के दौरान मिली हुई थी। दीदी केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस  सरकार में रही हों या भाजपानीत एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में, उनकी राजनीति तुनक मिजाज या ठसक की रही है। केंद्रीय कैबिनेट के महत्वपूर्ण मंत्रालयों की मंत्री होने के बावजूद छोटे-छोटे मुद्दों पर उनका संसदीय व्यवहार पूरे भारत के लोगों ने देखा है। किस तरह वे महत्वपूर्ण दस्तावेजों को फाड़ कर लोकसभा अध्यक्ष के ऊपर फेंक देती थीं। उन्होंने सदन में चलती हुई संसदीय कार्यवाहियों के दौरान अपना दुपट्टा तक अध्यक्षीय पीठ की ओर उछाला था।

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने से पूर्व केंद्र में कांग्रेस और भाजपा नेतृत्व वाली यूपीए व एनडीए सरकार में रेल मंत्री जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय मिले होने के वावजूद उन्होंने बंगाल के जनमानस के हित की चिंता को दरकिनार रखा। अपेक्षित लाभ से वंचित रखा। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वे कांग्रेस और भाजपा से विरोध दर्शाने के लिए केंद्र को चुनौती देती रहीं। हमेशा राज्य और केंद्र सरकार के मध्य तकरार के माहौल को बनाये रखा। नतीजतन इस राजनीतिक खुन्नस की लड़ाई में पश्चिम बंगाल के हित की बलि चढ़ती गई।

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जनकल्याण व राज्य के औद्योगिक व बुनियादी विकास बाधित होते देखने के लिए राज्य की जनता मजबूर रही। आखिर कब तक?  कभी तो जन आक्रोश का लावा फूटना ही था, जो अब दिखने भी लगा है। इसकी परिणति आगामी विधानसभा चुनाव में होना तय माना जा रहा है। दीदी को भी इस बात का इलहाम हो चुका है। शायद इसीलिए उनका गुस्सा चरम पर है। यदि वे यह समझती हैं कि साम्प्रदायिक विद्वेष या बिहारी-बंगाली या फिर बांग्ला भाषाभाषी और गैर बांग्लाभाषी के बीच रार करा कर अपने किले को सुरक्षित रख सकती हैं तो यह सोचना गलत साबित होगा। पश्चिम बंगाल की मूल बांग्लाभाषी आबादी ममता बनर्जी की राजनीति को समझ चुकी है। मुस्लिम तुष्टीकरण से आजिज आ चुकी है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। संपर्क- 7999515385)

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