पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलिः जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां

0
284

जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां गीत आज राज कपूर की पुण्यतिथि पर बरबस याद आ रहा है। राज कपूर हिंदी सिनेमा के सबसे शानदार डायरेक्टरों में शुमार हैं। इसलिए उन्हें ग्रेटेस्ट शोमैन भी कहा जाता है। वे पृथ्वीराज कपूर जैसे मशहूर अभिनेता के पुत्र थे लेकिन वे पहली ही फिल्म में हीरो के रूप में लांच नहीं हुए थे जैसा कि बाद के वर्षों में होता रहा है। उन्होंने निर्देशक केदार शर्मा के यहां कैल्पर बाय के रूप में काम शुरू किया था। यहां तक कि एक बार ज्यादा जोर से कैप्ल करने पर उन्हें केदार शर्मा का जोरदार थप्पड़ भी खाना पड़ा था। कुछ वर्षों बाद केदार शर्मा की ही फिल्म नीलकमल में वे हीरो के रूप में आए।
24 साल की उम्र में राजकपूर ने ‘आग’ (1948) का निर्माण और निर्देशन भी स्वयं किया। इसके बाद राज कपूर ने चेम्बूर में 1950 में अपने आर. के. स्टूडियो की स्थापना की। 1951 में उन्होंने ‘आवारा’ बनाई। इस फिल्म ने राजकपूर को काफी लोकप्रियता दी। यह उनकी सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक है। ‘बरसात’ (1949) फिल्म से राजकपूर और नर्गिस की जोड़ी बन गई थी। राज कपूर ने ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया।
राजकपूर अभिनेता ‘चार्ली चैपलिन’ से काफी प्रभावित थे। उनके अभिनय में उनकी स्पष्ट छाप दिखाई देती है। राजकपूर इसलिए महान थे कि उनकी लगभग सभी फिल्मों में कोई-ना कोई मैसेज होता था। यहां तक की वे अपराधी का भी रोल कर रहे होते थे तो भी ईमानदार व मानवता को उनके किरदार नहीं छोड़ते थे।
उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। वे अपनी लगभग हर फिल्म में अभिनेत्रियों के अंगों का दिखाने का कोई ना कोई बहाना या कहे सिच्यूएशन ढूंढ लेते थे। जैसे मेरा नाम जोकर में सिम्मी ग्रेवाल व पद्मिनी, सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत अमान, रामतेरी गंगा मैली में मंदाकिनी के नहाने का सीन।
राजकपूर की फिल्मों की सबसे खास बात उसकी कहानी होती थी वे हमारे समाज के अलग-अलग विषयों को दिखाते थे। जैसे श्री ४२० में जमाखोरी का मामला था। सत्यम शिवम सुंदरम में निम्न जाति का मसला दिखाया गाया था। प्रेम रोग में विधवाओं की स्थिति को बहुत ही संवेदनशील ढंग से पेश किया गया था।
राजकपूर की फिल्मों की सफलता और आज सत्तर साल बाद भी उन फिल्मों के लोकप्रिय होने की एक सबसे बड़ी वजह उनका कर्णप्रिय गीत- संगीत भी रहा है। राजकपूर को संगीत की अच्छी समझ थी। उन्होंने बहुत ही शानदार टीम बनाई थी। गायक मुकेश तो जैसे राजकपूर की आवाज थे। उनकी लगभग सारी फिल्मों में मुकेश ने ही गीत गाए थे। वहीं संगीत की बागडोर शंकर जयकिशन के पास थी। गीत लिखने के लिए शैलेंद्र थे।इन लोगों की टीम ने एक से बढ़कर एक यादगार गीत दिए हैं। जिन्हें हम आज भी बड़े शौक से सुनते हैं।
राजकपूर की एक बात जो सबसे ज्यादा भाती है वो है उनका एक सीधा-साधा इन्सान का किरदार निभाना। आपको तीसरी कसम का हीरामन तांगावाला याद है। इतना सहज अभिनय ही उनका सबसे बड़ी पूंजी थी। मेरा नाम जोकर के राजू के भोलेपन भी आप फिदा हुए बिना रह पाएंगे।
राजकपूर जिस तरह की प्रतिभा के धनी अभिनेता और निर्देशक थे उनके स्तर का उनका समकालीन एक नाम मुझे लगता है और वो है गुरुद्त्त। कुछ मामलों में गुरुदत्त को राजकपूर से भी बेहतरीन कहा जा सकता है क्योंकि गुरुदत्त ने हीरोइनों के कपड़े उतरवाने के बहाने नहीं तलाशे। इसके अलावा गुरद्त्त ने शायद राजकपूर की तुलना में ज्यादा बेहतरीन फिल्में बनाई हैं भले ही उनकी फिल्मों को राजकपूर जैसी व्यवसायिक सफलता नहीं मिली हो। अाप साहेब बीबी और गुलाम, प्यासा व कागज के फूल फिल्मों की तुलना राजकपूर की फिल्मों से कर के देख सकते हैं।

  • नवीन शर्मा
- Advertisement -