नीतीश कुमार के पास अब रास्ता नहीं, अकेले चल कर भी पिछड़ जायेंगे

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नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में चलने वाली भाजपा सरकार के पिछले सात वर्षों के कार्यकाल में देश के अंदर तनाव और टकराव बढ़ा है। सांप्रदायिक तनाव तो बढ़ा है। कह रहे हैं आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी
नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में चलने वाली भाजपा सरकार के पिछले सात वर्षों के कार्यकाल में देश के अंदर तनाव और टकराव बढ़ा है। सांप्रदायिक तनाव तो बढ़ा है। कह रहे हैं आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी

बिहार की राजनीति में अकेले चल पाना उनके लिए मुमकिन नहीं है. अब तक के अपने राजनीतिक जीवन में दो मर्तबा अकेले चले हैं. 1995 में समता पार्टी उनके नेतृत्व में विधान सभा का चुनाव लड़ी थी. नतीजा सबको याद है. दूसरी मर्तबा 2014 का पिछला लोकसभा चुनाव वे अकेले लड़े. तीसरे स्थान पर रहे. नीतीश जी भले बिहार में तीसरे नम्बर हैं. लेकिन आकाँक्षा उनकी हमेशा पहले स्थान बने रहने की रही है. इस लिए वे जहाँ रहते हैं वहाँ की मुख्य ताक़त से अपने को अलग दिखाकर अपनी विशिष्टता साबित करना उनकी पुरानी रणनीति रही है. लेकिन पूर्व में जब भी उन्होंने यह रणनीति अपनाई है वे अपने तत्कालीन गठबंधन से अलग हुए हैं. इसके पूर्व एनडीए से अलग होने के पहले ज़ोर सोर से उन्होने नरेंद्र मोदी की साम्प्रदायिक और विभाजनकारी छवि का सवाल उठाया था. इसका उन्हें अप्रत्याशित लाभ भी मिला. देश उनको उन्हें मोदी जी के विकल्प के रूप में देखने लगा था. 2015 का विधानसभा चुनाव महागठबँधन के साथ लड़े. लेकिन सरकार बनाने के बाद जब भी मौक़ा मिला उन्होंने वहाँ भी अपने को अलग दिखाने के अंदाज पर वे क़ायम रहे. नोटबंदी का तत्काल समर्थन कर दिया. समर्थन के सार्वजनिक एलान के पहले गठबंधन के अपने सहयोगियों को अपनी अलग राय से अवगत करने का शिष्टाचार भी नहीं निभाया. राष्ट्रपति के चुनाव में या तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में भी उन्होंने यही किया. और अंततोगत्वा पुनः एनडीए के शरण मे आ गए. ऐसा उन्होने क्यों किया इस रहस्य पर अभी भी परदा पड़ा हुआ है.
अब योग दिवस में भाग नहीं लेने की घोषणा उनकी ओर से हो गई है. आगे अब क्या करेंगे ? उनके सामने अब रास्ता क्या है ? यह सवाल उठना स्वभाविक है. बिहार की राजनीति मे कोई तीसरा पक्ष नहीं है. लोकसभा का अगला चुनाव सीधा होने वाला है. इस तथ्य से सब वाक़िफ़ हैं. महागठबंधन का दरवाज़ा उनके लिए बंद है. आज भी तेजस्वी ने एक चैनल को इन्टरभ्यू में कहा है कि इस मामले में पार्टी तय करेगी. लेकिन नीतीश कुमार को महागठबंधन में पुन: शामिल किया जाए इस राय से इत्तफ़ाक़ नहीं रखते हैं. तब नीतीश कुमार के इस पैंतरे का क्या मतलब है ! मौजूदा लोकसभा में दो सांसद वाली पार्टी के नेता नीतीश कुमार की बेचैनी का सबब समझा जा सकता है. बिहार एनडीए में एक समय बड़े भाई की हैसियत रखने वाले नीतीश जी कनिष्ठ की भूमिका की आशंका से बेचैन हैं. अपनी पुरानी हैसियत हासिल करने की छटपटाहट हैं. लेकिन क्या यह मुमकिन है ! भले आपके दरवाज़े पर कभी हाथी झुमता था. लेकिन उसका सीकड़ दिखाकर आप उस हैसियत को आज हासिल नहीं कर सकते हैं. नीतीश मंत्रीमंडल में शामिल भाजपा के मंत्री लालच में भले ही उनका नख़रा सहन कर रहे हों लेकिन चुनाव में सीटों का फैसला तो मोदी-शाह की जोड़ी करेगी. यह घाघ जोड़ी है. नीतीश कुमार का नख़रा कितना झेलेंगे ! पिछले उपचुनावों मे नीतीश कुमार की ताक़त का आकलन हो ही चुका है. अभी तक मोदी सरकार के व्यवहार से भी स्पष्ट हो चुका है कि उनको अब पुरानी हैसियत हासिल होने वाली नहीं है. पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने के नीतीश कुमार की सार्वजनिक हाथजोड़ी को जिस प्रकार नरेंद्र मोदी ने झटक दिया वह सबके सामने है. या पिछले वर्ष की भीषण बाढ़ पर सहायता की राशि की माँग अनसुनी की गई, यह भी प्रत्यक्ष है. इसलिए मुझे नहीं लगता है कि नीतीश कुमार की पीटीपीटाई रणनीति अब कारगर होने वाली है.

  • शिवानन्द

20 जून 18

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