‘नियम व शर्तें लागू’ वाला केंद्र सरकार का राहत पैकेज

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‘नियम व शर्तें लागू’ वाला कोरोना राहत पैकेज-3  लॉक डाउन-3 के प्रायः अंत में कल यानी 14 मई को पब्लिक डोमेन में आ गया। क्या और कितना होगा इसका असर, बता रहे वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे
‘नियम व शर्तें लागू’ वाला कोरोना राहत पैकेज-3  लॉक डाउन-3 के प्रायः अंत में कल यानी 14 मई को पब्लिक डोमेन में आ गया। क्या और कितना होगा इसका असर, बता रहे वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे
  • श्याम किशोर चौबे

‘नियम व शर्तें लागू’ वाला कोरोना राहत पैकेज-3  लॉक डाउन-3 के प्रायः अंत में कल यानी 14 मई को पब्लिक डोमेन में आ गया। कितना असरदार होगा पैकेज, आइए जानते हैं। बेशक अबतक का बीता कोरोना काल जीवन के हर क्षेत्र में भयावह रहा है। इससे उबरने के लिए हर कोने में छटपटाहट है। इस अति संक्रामक बीमारी के कारण उद्योग, व्यवसाय, रोजगार आदि-आदि ठप हो गए हैं। करोड़ों लोग बेरोजगारी के शिकार हो चुके हैं। लॉक डाउन के कारण वे लंबे अरसे तक कहीं मूव करने की भी स्थिति में नहीं थे। उनको विशेष रेल या बसों से लाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। इसके बावजूद लाखों लोग नाउम्मीद होकर पांव पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर जाने का अत्यंत तकलीफदेह और जोखिम भरा उपक्रम कर रहे हैं। ऐसे में कल्याणकारी सरकार से राहत पैकेज की उम्मीद तो बनती ही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने इस क्रम में बीस लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की थी। इसका तीसरा चैप्टर 14 मई को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जारी किया। बहुत विलंब से ही सही, उन्होंने इस चैप्टर में प्रवासी कामगारों, लघु व सीमांत किसानों, ठेला-खोमचा और फुटपाथ वालों, मध्यम आय वर्ग वाले परिवारों, आदिवासियों आदि की सुध ली। पूरे 54 दिनों की प्रतीक्षा के बाद वित्त मंत्री ने 3.16 लाख करोड़ का जो पिटारा खोला, उसका भी फलितार्थ इसके पहले के पैकेज की तरह बैंकों में ही जाकर सिमट जाता है।

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बीस लाख करोड़ के पूरे पैकेज में से तीन चरणों में जितने का खुलासा किया जा चुका है, इसके बाद अब चौथे चरण के लिए 3.96 लाख करोड़ ही शेष रह गया है। बहरहाल, वित्त मंत्री ने पैकेज मामले में अपने तीसरे संबोधन में नौ बिंदुओं पर राहत की बात कही, जिसमें से तीन प्रवासी कामगारों के लिए हैं, जबकि दो किसानों के लिए। ठीक एक दिन पहले उनके द्वारा व्याख्यायित दूसरे पैकेज से यह कहीं ज्यादा रिस्की है। इस पैकेज का ताना-बाना यही बताता है कि इसे अधिकारियों ने गोल-मटोल बना दिया, जिस पर राजनीतिक और व्यावहारिक दृष्टि नहीं डाली गई। फिर भी देखिए किसको क्या मिला है, क्योंकि हर प्वाइंट में यही प्रतीत होता है मानो कहा जा रहा हो कि भइया, ये नियम व शर्तें लागू हैं, आप चाहो तो कर्ज ले लो और काम चलाओ। मूलतः राहत यही दी गई है कि पुरानी चली आ रही योजनाओं को या तो अवधि विस्तार दे दिया गया है या फिर उनमें अंतर्निहित रियायतों में एकाध प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी गई है। यही करना था तो इतने दिनों का इंतजार क्यों किया गया?

सबसे पहले बात कामगारों की, जिनको लेकर देश भर में हायतौबा मची हुई है। सरकारी अनुमान के अनुसार असंगठित क्षेत्रों में काम करने वालों की संख्या करीब आठ करोड़ है। कुल कामगारों में इनकी मौजूदगी 70 प्रतिशत है। यानी महज 30 प्रतिशत ही कामगार संगठित क्षेत्र में हैं, जो बीमा, भविष्य निधि और विधिसम्मत सेवा शर्तों से लैस हैं। अब केंद्र सरकार ने असंगठित क्षेत्र के इन कामगारों के लिए बीमा, भविष्य निधि, विधि सम्मत सेवा शर्तें और नियुक्ति पत्र की सुविधा लागू कर दी है। जाहिर है कि यह प्रक्रिया पूरी करने का दायित्व नियोक्ताओं को ही उठाना पड़ेगा। दूसरी ओर प्रवासी कामगारों की अपने घर में व्यापक पैमाने पर आमद को देखते हुए मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश सहित कतिपय अन्य राज्यों की सरकारों ने श्रम कानूनों में इस हद तक बदलाव की सिफारिश कर दी है, जो नियोक्ताओं के ही हित में हैं। वे यदि लागू हो जाएं तो कामगारों की हैसियत गिरमिटिया मजदूर की हो जाएगी। यह भी कहा गया  है कि कामगारों के आवासन के लिए या तो सरकार सस्ते किराये का मकान बनवाएगी या नियोक्ता अपने खाली जमीन में मकान बनवाकर कामगारों से मामूली किराया वसूल लिया करें। यह करेगा कौन? नौ की लकड़ी नब्बे खर्च। कारखानेदार या नियोक्ता तो अपने ही नुकसान का रोना लेकर बैठे हैं। नियुक्ति पत्र, बीमा, भविष्य निधि जैसी सुविधाएं उनको देना ही होता तो अबतक का कब का दे चुके होते।

यह फरमान नियोक्ता और कामगार में टकराव बढ़ाएगा, वह भी अभी के ऐसे समय पर जब डूबी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना है और तेज विकास का सफर शुरू करना है। दूसरी बात यह कि सरकार ने प्रवासी कामगारों के लिए दो महीने का राशन, जिसमें पांच किलो चावल या गेहूं और एक किलो चना मुफ्त देने की घोषणा की है। यह राशन उनके वर्तमान स्थल पर ही दिया जाएगा। यह जवाबदेही संबंधित राज्य सरकारें उठाएंगी। बहुतेरी राज्य सरकारें ऐसा पहले से ही कर रही हैं और बदले में उन्होंने केंद्र से आर्थिक सहायता की मांग की थी। इस लिहाज से केंद्र ने यह अच्छा ही कदम उठाया है, जिस पर 3,500 करोड़ रुपये खर्च होंगे।

यूं, वित्त आयोग के निर्देशानुसार आपदा राहत मद में राज्यों को देने के लिए 11 हजार करोड़ की व्यवस्था की गई थी, प्रवासियों का राशन भी उसी का हिस्सा है। इस भीषण आपदा के समय, जब प्रवासी कामगार बसों, रेलगाड़ियों में लद कर या पैर घसीटते हुए अपने पैतृक घर की ओर जा रहे हैं, जरूरत इस बात की थी कि उनको सीधी मदद दी जाये। उनके खाते में या घर पर मदद राशि देने के बजाय चावल/ गेहूं की मदद का सीधा मतलब है, किसी तरह जिंदा रहो।

जब बात आती है सीमांत किसानों की तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे हमारी सरकारें उनको कर्ज लेने की सुविधा से अलग कुछ सोचती ही नहीं। यह बात खटकती है, जैसा कि वित्त मंत्री ने कल यानी गुरुवार को अपने संबोधन में कहा, यह नहीं भूलना चाहिए कि किसान चार लाख करोड़ से ज्यादा पहले ही लोन ले चुके हैं। यह बजट संबोधन जैसा था। उनके लिए अतिरिक्त कर्ज की व्यवस्था कर दी गई है। वे तो कोविड त्रासदी के बगैर भी कर्ज तो लेते ही, फर्क इतना ही है कि यह सुविधा बढ़ा दी गई है। ऐसे भी समय पर कर्ज अदा करनेवाले किसानों को सस्ता कर्ज देने की व्यवस्था चली आ रही है। ऐसा लगता है जैसे यह साइकिल चली आ रही है कि किसान खेती के लिए कर्ज लें, बाजार के कारण या मौसम की मार के कारण अपने को असमर्थ पा आत्महत्या करें और हंगामा होने पर कर्ज माफी की घोषणा की जाये। जो सरकारें कर्ज दिलाती हैं, वे ही फिर बैंकों पर कर्ज माफी का दबाव बनाती हैं। ऐसे भी आज की तारीख में किसानों को फसली कर्ज की जरूरत नहीं है। जितनी उनकी किस्मत में थी, रबी फसल आ चुकी है। जैसे ही खरीफ का सीजन आएगा, वे बैंकों/ महाजनों के दरवाजे पर खड़े नजर आएंगे ही। इस मायने में सरकार ने कोई बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाने के बजाय फसली कर्ज, क्रेडिट कार्ड कर्ज जैसी कुछ खिड़कियां खोल दी हैं। जहां तक वन नेशन वन राशन कार्ड की बात है, यह घोषणा जनवरी के आरंभिक दिनों में की जा चुकी थी। यह मकसद पूरा होने में थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन भविष्य के लिए यह अच्छा कदम होगा, खासकर आपदा के समय।

सबसे अनोखी घोषणा है ठेला-खोमचा वालों और फुटपाथ दुकानदारों की। इनकी अनुमानित संख्या 50 लाख है, जिनको अपना व्यवसाय पुनः सुचारू रूप से चलाने के लिए दस हजार रुपये कर्ज दिया जाएगा। यह कहने की बात नहीं कि छोटे कर्ज से बड़ी उत्पादकता हासिल नहीं की जा सकती। दूसरी बात यह कि मुद्रा ऋण का हश्र देखा जा चुका है। बैंकवाले इस मामले में सरकार से अलग नजरिया रखते हैं, क्योंकि छोटे लोन में बड़े डिफाल्ट सामने आने का इतिहास रहा है। यह कर्ज रेहड़ी-पटरी वालों तक पहुंच भी पाएगा या नहीं, यह एक विचारणीय मुद्दा है, क्योंकि जगह-जगह लोन एजेंट सक्रिय रहते हैं। कर्ज लेने वालों की पहचान भी एक सवाल है। दूसरी बात यह कि इस पर ब्याज दर अभी तय नहीं है।

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इस राहत पैकेज में सरकार ने खासकर शहरी मध्यवर्ग को छुआ है। उनके लिए सस्ते आवास का दरवाजा खोला है। हालांकि यह योजना पहले से चली आ रही है, जिसे अगले मार्च तक अवधि विस्तार दिया गया है। कोविड संक्रमण से उत्पन्न वित्तीय आपातकाल ने सबसे अधिक गहरे संकट में इसी वर्ग को डाला है। इस वर्ग की नौकरी या रोजगार संकट में पड़ गया है। या तो किसी की नौकरी चली गई है या आय की समस्या उत्पन्न हो गई है। ऐसे में वह घर खरीदने की बात किस हद तक सोच पाएगा, सोच की बात यही है। आदिवासियों के लिए कैम्पा फंड आवास बनाने की ‘राहत’ भी तत्काल की राहत तो है नहीं। कुल मिलाजुलाकर यह राहती पिटारा भी उन बेचारे बैंकों की ही राह दिखाता है, जो खुद ही जमाकर्ताओं के भरोसे चलते हैं।

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आज का संकट अप्रत्याशित है, अभूतपूर्व है। नौकरी, रोजगार, व्यापार, बाजार, मैन्युफैक्चरिंग सबकुछ एक साथ संकटापन्न हो गया है। ऐसी स्थिति में प्रक्रियागत राहत से बंपर सक्सेस की उम्मीद नहीं बनती। यह तो अच्छे दिनों में भी बेहतर रिजल्ट नहीं देती। आप चाहें तो बैंकों के चक्कर लगाते रहें। वक्त की मांग है कि नौकरी मिले, रोजगार मिले ताकि डिमांड को अप्रत्याशित पुश अप दिया जा सके। जो लोग इस बात से ताल्लुक नहीं रखते, वे कह सकते हैं कि आम खाने से मतलब है कि पेड़ गिनने से। उनको समझना चाहिए कि मुड़ी गिनकर चलनेवाली जम्हूरियत में आम और पेड़ दोनों गिनने की जरूरत पड़ती है। सेवकों की सेवकाई का बेबाक आकलन जरूरी है। बाबा तुलसीदास भी लखनलाल के मुंह से कहला गए हैं, सेवक सोई जो करै सेवकाई…।

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