झारखंड के मुख्यमंत्री के नाम सुनील तिवारी ने फिर लिखा खत

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झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नाम वरिष्ठ पत्रकार सुनील तिवारी ने फिर एक पत्र भेज वजीर-ए-सेहत यानी स्वास्थ्य मंत्री के कामकाज पर आपत्ति जताई है।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नाम वरिष्ठ पत्रकार सुनील तिवारी ने फिर एक पत्र भेज वजीर-ए-सेहत यानी स्वास्थ्य मंत्री के कामकाज पर आपत्ति जताई है।

निशाने पर वजीर-ए-सेहत यानी स्वास्थ्य मंत्री, उनके कामकाज की शैली पर सवाल 

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नाम वरिष्ठ पत्रकार सुनील तिवारी ने फिर एक पत्र भेज वजीर-ए-सेहत यानी स्वास्थ्य मंत्री के कामकाज पर आपत्ति जताई है। उन्होंने लिखा है कि स्वास्थ्य मंत्री की वजह से कोरोना टेस्ट कम हो रहे हैं और रिम्स के डायरेक्टर को विपदा की इस घड़ी में जाना पड़ रहा है। आप भी पढ़ें, हूबहू उनके पत्र का मजमूनः  

“आजकल अखबारों में, टीवी पर और तरह-तरह के स्क्रीन पर इन दिनों आपकी जबर्दस्त आमद से एक तरफ खुशी होती है, दूसरी तरफ आपकी ही तरह फिक्रमंदी भी बनी रहती है कि झारखंड की कोरोना से हिफाजत कैसे हो सकेगी? जब हर दिन इस-उस कोने से एक-दो कोरोना पाजिटिव केस निकल ही आ रहे हैं तो किसकी सेहत, कितने दिनों तक सही-सही बनी रहेगी, कहना मुश्किल है। इसी चिंता में बिना किसी मान्यवर या महाशय जैसे दिखावटी संबोधन की जहमत उठाए, मैं आप सबों का एक पुराना साथी के नाते सीधे-सीधे विषय पर आ रहा हूं।

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जब खुद को दुनिया का शहंशाह समझने वाला अमेरिका कोरोना से बुरी तरह से घिर कर लथपथ है तो हमारी-आपकी क्या बिसात? जिस तरह तेज तपिश और धुआंधार आंधी से पेड़-पौधे और घास-पात सूख-साख जाते हैं, तब भी दूब खूब-की-खूब बनी रहती है। बस इसी तरह अपना झारखंड बना रहे, यही दुआ करता रहा हूं। लेकिन वो जो आपके दुलारे वजीर-ए-सूबा हैं न, उनकी सोच-सोच कर मरा जा रहा हूं। आपने आज के बेहाल अमेरिका के एक पुराने राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का नाम तो सुना ही होगा, जिन्होंने अपने बच्चे के हेडमास्टर को तारीखी चिट्ठी लिखी थी। उस चिट्ठी की आजतक चर्चा होती है। मैं लिंकन तो नहीं, लेकिन आपका खैरख्वाह तो हूं हीं। इसीलिए यह चिट्ठी लिख रहा हूं, ताकि आप वजीर-ए-सेहत के तौर-तरीके पर गौर कर सकें। इतना तो मैं जानता ही हूं और आप भी जानते ही होंगे, उन जनाब पर लगाम लगाना आसान नहीं है, फिर भी कोरोना काल में, जब राज्य की इज्जत और शोहरत दांव पर लगी हुई है तो इशारा करना मेरा फर्ज तो बनता ही है।

देश-दुनिया का हालचाल देखकर और यही सोच-साच कर मैं दुबला हुआ जा रहा हूं कि आज के फरिश्ते डाक्टर, पुलिस, पारामेडिकलकर्मी और सफाईकर्मियों को किस प्रकार तंग-तबाह किया जा रहा है? आपने एक तरफ लगभग तीन दर्जन आला पुलिस पदाधिकारियों को इधर से उधर कर दिया तो वजीर साहब ने ऐसा कुछ किया कि रिम्स के डायरेक्टर बेचारे कोराना संकट के बीच ही यहां से भागना अपनी इज्जत की सेहत के लिए अच्छा समझ रहे हैं। नयका पुलिस कप्तान लोग अपने-अपने जिले की किस तरह रातों-रात कमान संभालेंगे, ये वही जानें, लेकिन सूबे के सबसे बड़का अस्पताल का डायरेक्टर कहां से लाएंगे? यह तो समझना कतई मुश्किल नहीं। पिछले अनुभवों पर गौर फरमाइये। बरस-दो बरस तक खोज-पड़ताल करने पर कोई मिलता भी है तो पहले से भी यहां वजीरों की ठन जाती रही है। दरअसल साहबों के साये में रहने की आदत उनको किसी तजुर्बेकार को बर्दाश्त करने ही नहीं देती। साहबों से सलामी लेना मदमस्त कर देता है। उनके सामने डाक्टर-वाक्टर को कौन पूछता है?

हम अब भी कह रहे हैं और बड़े गर्व से सीना ठोंककर कह रहे हैं कि राजधानी को छोड़ दिया जाय तो सूबे में कोरोना दबा-सहमा ही हुआ है। उधर इसको उसी हाल में, बल्कि इससे भी बुरे हाल में दबा सहमा हुआ बनाये रखने की जरूरत है, जबकि आपकी और वजीर साहब की नाक के नीचे की बस्ती, राजधानी का हाल तो बेहाल है ही। इसको संभालने का जिम्मा रिम्स पर ही है, जबकि रिम्स को जनाब ने बेसहारा बनाने के प्रयास में कोई कसर बाकी नहीं रखी। आगे आप जानें और आपके वजीर जानें। हमारा क्या, आज न कल तो गुजर ही जाना है, गुजर जाएंगे, कौन पूछता है?

खैर, आप तो जानते ही हैं कि भले ही आप जैसों की संगति रही हो, लेकिन हमारी बुद्धि छोटी है। बुद्धि का हाल यह कि तमगा लगते ही यह बेसाख्ता बड़ी हो जाती है। देखते नहीं, वजीर साहब कितने ऊंचे और आला ख्याल के हो गये हैं ! आला ख्याल उनके ’’ऊंचे’’ ख्याल वाले अपने दल की निशानी है। वे खुद पर कुछ भी जवाबदेही लेना ही नहीं चाहते। इधर कोरोना की हाय-तौबा मचती है, उधर वे चिल्लाने-चिग्घाड़ने लगते हैं, ’’मोदी जी कुछ नहीं कर रहे’’। भइया, मोदी जी के नुमाइंदे को तो दरकिनार कर झारखंडियों ने जनाब को आसन पर बैठाया, लेकिन वे हैं कि जत्तो दोष, नंदो घोष की तर्ज पर सारा बुरा-बुरा मोदी जी पर ही थोप देने पर आमादा हैं। हम तो यही जानते-समझते हैं कि कोरोना को हराना है तो अधिक से अधिक टेस्टिंग हो। इसका इलाज-विलाज तो कुछ है नहीं। टेस्टिंग से मरीज की शिनाख्त कर, उसको तन्हाई में रखने और उसकी विल पावर और इम्युनिटी पावर बढ़ाने से वह बहुत कुछ ठीक हो जाता है। जनाब को यह बताना चाहिए कि हर दिन वे कितने लोगों की टेस्टिंग करा रहे हैं? जब टेस्टिंग ही कमतर और रोज-ब-रोज कमजोर से कमजोर हो रही हो तो तो इन्फेक्शन और इन्फेक्टेड का पता कैसे चलेगा? और जब इसका पता ही नहीं चलेगा तो जाहिर है कि आए दिन कभी इधर से तो कभी उधर से मरीज नमूदार होते ही रहेंगे। और यह भी कहने-समझाने की जरूरत नहीं कि एक मरीज माने दस मरीज या इससे भी अधिक मरीज।

आपको भी तो श्वेत-पत्र जारी करने में महारथ हासिल है। जरा इस मसले पर भी एक श्वेत-पत्र जारी कर देते कि रोज कितनी टेस्टिंग हो रही है? टेस्ट की राज्य की क्षमता बढ़ने की बजाय दिनों-दिन घटती क्यों जा रही है? अन्य राज्यों की तुलना में आबादी के हिसाब से टेस्ट के मामले में हम किस पायदान पर हैं? अगर टेस्ट इसी तरह कछुए की चाल चलता रहा तो आगे कितने दिनों में यहां के लोग राहत की सांस ले पायेंगे? गांव-गिरावं तक लोगों को सेहतमंद रखने के लिए कौन-कौन सी तरकीबों की बहालियां की गई हैं? अभी राज्य की लाइफलाइन रिम्स में टेक्निशियन और लैब के इनफैक्टेड होने से जो कोरोना जांच बंद हुई है, उसके लिये वैकल्पिक उपाय के तहत आपके वजीर साहब के पास पहले से कोई प्लान था क्या? सुना भी है और समाचारों से भी पता चल रहा है कि रिम्स निदेशक के बाद अब वे स्वास्थ्य सचिव के पीछे पड़े हुए हैं? आपके द्वारा एसपियों की बदली उनके ’’मनमुताबिक’’ पूछ कर नहीं करने की पीड़ा है, सो अलग। हां, उनके विभाग में इंजीनियरों एवं कंस्ट्रक्शन की पुरानी व्यवस्था फिर से पुनर्जीवित कराने की चिंता से भी वजीर साहब दुबले हुए जा रहे हैं।

जाने भी दीजिए, उन बातों को। वे और उनके संगी-साथी यही बता दें कि कोरोना से बचने के लिए सफाई करने वाले और स्प्रे करने वाले मानवों के लिए क्या-क्या किया गया है? उनकी सुरक्षा के लिए जरूरी ड्रेस और अन्य साजो-सामान मसलन जूते आदि के लिए तो मोदी-मोदी गुहार लगाने की जरूरत नहीं है न! अभी चंद दिनों पहले हमारे मुहल्ले की ही बात है, जब स्प्रे कर रहे लोगों को नंगे पांव देखकर लोग तरस खाने लगे। वे क्या लोगों को बचाते और स्प्रे करते, लोग ही उनको बचाने के लिए अपने परिवार के जूते आदि देकर उनकी हिफाजत की फिक्र में जुट गए। जनाब को बोलिए कि ज्यादा बोलने से काम ज्यादा नहीं होता और यह कोरोना तो आपसी नजदीकी बातचीत से भी पकड़ लेता है। इसलिए अपनी पुरानी आका की कही बातों को वे याद फरमाएं और बातें कम, काम ज्यादा मसल पर गौर करते हुए अमल करें और 2014 को याद करें। यह साल 2014 उनके लिए तारीखी है। इसे हमेशा याद रखें, चार दिनों की चांदनी में मशगूल न रहें।

बाकी आगे भी आपसे खत-किताबत होती रहेगी। पुराने रिश्ते खत-किताबत से भी जिंदा रहते हैं। उम्मीद है कि आप अपने स्वजनों का पूरा खयाल रखते होंगे। कहीं ऐसा न हो कि तीन-साढ़े तीन करोड़ लोगों का ध्यान रखते-रखते आप निकटजनों को ही भूल गये हों। वैसे भी सत्ता की धमक व दौड़ का साइड इफेक्ट यह भी है कि निष्ठावान लोग पीछे छूट जाते हैं और चरण संस्कृति गाने वाले अवसरवादी चापलूस उनकी जगह काबिज हो जाते हैं। इसलिए आपको याद दिला दिया। पहले आत्मा, तब परमात्मा की तर्ज पर सोचा कह ही दूं, पहले घर, तब संसार। मुझे पक्का भरोसा है कि आप मेरी गुहार को सकारात्मक रूप में लेंगे, अन्यथा नहीं।

जोहार !”

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