गुरुदत्त की मुफलिसी की कहानी है क्लासिक फिल्म- ‘प्यासा’

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फिल्म प्यासा को पोस्टर
फिल्म प्यासा को पोस्टर
  • वीर विनोद छाबड़ा 

गुरुदत्त की मुफलिसी की कहानी है क्लासिक फिल्म- ‘प्यासा’। क्लासिक फिल्म- ‘प्यासा’ और ग्रेट मैन गुरुदत्त। यह कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि सच्चाई है। धुंधली सी याद है, जब मैंने पहली बार ‘प्यासा’ (1957) देखी थी। तब मैं सात साल का था। कुछ भी तो समझ नहीं आया। बस ‘सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाये…’ ही याद रहा। पिताजी ने बताया, ये जॉनी वॉकर है। फिल्म ख़त्म हुई। पिताजी शांत थे, खासे ग़मगीन भी। गहराई से कुछ सोच रहे थे। बाकी दर्शकों के चेहरे पर भी मुर्दनी देखी। मैंने पिता जी पूछा था, क्या हुआ? वो बोले थे, बच्चे हो। जब बड़े होगे तो समझोगे। और मैंने बड़े होने की प्रतीक्षा की। री-रन पर देखी। तब समझ में आया पिताजी की चुप्पी और उनके चेहरे पर आयी ग़म की लकीरों का राज़। बरबस मुंह से एक ही शब्द निकला, क्लासिक? तब से आज तक दर्जनों बार देख चुका हूँ। और हर बार यही कहता हूँ, ग्रेट गुरुदत्त।

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‘प्यासा’ की कहानी किसने लिखी है? फिल्म के टाइटल से तो पता नहीं चलता। बस इतना लिखा है, डायलॉग- अबरार अल्वी। कहीं पढ़ा था कि गुरुदत्त की मुफलिसी भरे दिनों की दास्तान है ये, जिसकी स्क्रिप्ट अबरार अल्वी ने लिखी थी। इसमें एक वेश्या का कैरेक्टर भी है, गुलाब। इसे अबरार अल्वी की ज़िंदगी से उठाया गया है। शायद असल में भी उसका यही नाम था। वो अबरार से आभार व्यक्त करती थी, हम वेश्याओं का भी सम्मान होता है, ये पहली बार पता चला।

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विजय (गुरुदत्त) एक कवि है। उसकी कविता में अन्याय, ज़ुल्म और विषमता के विरुद्ध आग है, दुनिया को बदल डालने की तड़प है। मगर उसे कोई समझता नहीं है, घर के सदस्य और दोस्त भी नहीं। उसकी रचनाओं को भाई रद्दी में बेच देते हैं, कला की कोई कद्र नहीं है। अख़बारों और मैग्ज़ीनों के संपादक-प्रकाशक उसे छपने लायक नहीं मानते, महफ़िलों में उसे सुना नहीं जाता, कुछ फड़कता हुआ सुनाओ। प्रेमिका मीना (माला सिन्हा) एक अमीर प्रकाशक घोष (रहमान) से शादी कर लेती है, ताकि अच्छी और आराम की ज़िंदगी बसर हो। घोष वास्तव में लेखकों-कवियों का शोषण करने वाला माफिया है। मुफ़लिसी की ठोकरें खाते विजय को सहृदय वेश्या गुलाब (वहीदा रहमान) मिलती है, जो उसकी कविताओं की प्रशंसिका है। एक दिन एक फंक्शन में विजय को माला मिलती है, शौक के लिए प्यार करती हो और अपने आराम के लिए प्यार बेचती हो। घोष उन दोनों को देख लेता है। उसे शक होता है कि ये ज़रूर उसका अतीत है। वो विजय को क्लर्क की नौकरी देता है ताकि विजय-माला के अतीत को जान सके। घोष एक फंक्शन आयोजित करता है। विजय को वो मेहमानों को ड्रिंक सर्व करने के लिए कहता है। मीना की आँख में आंसू आ जाते हैं। घोष का शक़ यक़ीन में बदल जाता है। वो विजय को नौकरी से निकाल देता है। भटकता हुआ विजय एक भिखारी से टकराता है। वो उसे अपना कोट पहना देता है। भिखारी की ट्रेन एक्सीडेंट में मौत हो जाती है। कोट से विजय का पता मिलता है। विजय को मरा हुआ मान लिया जाता है। हाहाकार मच जाता है, बहुत बड़ा कवि मर गया। गुलाब अपनी समस्त जमा-पूँजी लेकर घोष से प्रार्थना करती है कि विजय की अप्रकाशित कविताओं का संग्रह प्रकाशित कर दें। घोष मान जाता है, मालामाल होने का अच्छा मौका है। इधर अस्पताल में पड़े विजय को जब अपनी प्रकाशित पुस्तक देखता है तो वो चौंक जाता है, अरे ये तो मेरी ही रचनाएं हैं। लेकिन डॉक्टर नहीं मानता, उसके घर वाले और दोस्त भी उसे पहचानने से इंकार कर देते हैं। विजय को पागलखाने भेज दिया जाता है। एक दोस्त अब्दुल सत्तार (जॉनी वॉकर) की मदद से वो पागलखाने से भाग निकलता है और अपनी ही श्रद्धांजलि सभा में पहुँच जाता है। वहां भी उसे पहचानने से इंकार कर दिया जाता है। घोष हंगामा करा देता है। विजय को इस मतलबी और पैसे की भूखी दुनिया से नफ़रत हो जाती है जहाँ ज़िंदा की नहीं मरे हुए की क़द्र है। मीना विजय से कहती है, बताओ दुनिया को कि तुम्हीं विजय हो। लेकिन विजय नहीं मानता, विजय तो मर चुका है। और वो गुलाब का हाथ पकड़ता है, आओ दूर चलें, जहाँ से फिर दूर न जाना पड़े।

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ऐसी या इससे मिलती-जुलती कहानियों पर फ़िल्में बनती रही हैं। लेकिन हरेक का ट्रीटमेंट अलग रहा और मैं निसंकोच कह सकता हूँ, गुरुदत्त का नज़रिया बेजोड़ था। वो समय से आगे थे, बहुत आगे। वो अमीर प्रकाशक और मजलूम लेखक के बहाने पूंजीपति और सर्वहारा को रेखांकित करते हैं। मजलूमों के सपनों को टूटता हुए देखते हैं। उनको धिक्कारते हैं जो स्त्री की देह की चाह रखते हैं लेकिन समाज से उसे बहिष्कृत रखते हैं। मगर गुरू का विजय उस स्त्री के साथ अपनी ज़िंदगी बसर करने का इरादा ज़ाहिर करता है। और भी बहुत कुछ है इसमें जो सोचने के लिए मजबूर करता है। पैसे में बहुत ताकत है, दोस्त ही नहीं रिश्ते भी खरीदे जा सकते हैं, प्रेमिका भी साथ छोड़ सकती है। गुरू कई नज़रियों से समाज को बार बार आईना दिखाते हैं। गुरू के करीबी बताया करते थे, गुरू के दिमाग में हर वक़्त कुछ न कुछ उमड़ता-घुमड़ता रहता था, कश्मकश चलती थी। इसीलिए उन्होंने पहले फिल्म का नाम ‘कश्मकश’ रखा था। इस सिलसिले में एक गाना भी है…तंग आ गए हैं कश्मकश-ए-ज़िंदगी से हम…उन्होंने कई बार किया, फिल्म शुरू की और थोड़ी दूर जाकर छोड़ दी। लेकिन ‘प्यासा’ नहीं छोड़ी। दूसरों को हैरानी हुई, बाज़ी, जाल और आरपार जैसी हल्की-फुल्की और मिस्टर एंड मिसेस 55 जैसी कॉमेडी बनाने वाले गुरू इतने धीर-गंभीर कैसे हो सकते हैं। लेकिन उन्हें जानने वालों को मालूम था, गुरू हैं ही ऐसे।

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दो राय नहीं हो सकतीं कि गुरू ने जिस नज़रिये से समाज को देखा और समझा, गीतकार साहिर लुध्यानवी उनके साथ कदम से कदम मिला कर चले। साहिर के बिना उनकी प्यास अधूरी रहती। साहिर के गीतों ने ही गुरू के अंतर्द्वंद को उजागर किया…जिन्हें नाज़ है हिन्द पे कहाँ हैं…जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला…ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…शायद यही वज़ह रही कि हर ख़ास-ओ-आम में जितनी चर्चा प्यासा के गुरू की हुई उतनी ही साहिर के अर्थपूर्ण और सारगर्भित गानों की भी हुई, बल्कि साहिर बीस ही पड़े। बताते हैं जब बम्बई के एक थिएटर के स्क्रीन पर ये गाना चला…जिन्हें नाज़ है हिन्द पे वो कहां हैं…चला तो पब्लिक उठ कर खड़ी हो गयी, वन्स मोर… वन्स मोर…और मजबूर हो कर थिएटर मालिक रील वापस चला कर एक बार नहीं दो बार नहीं तीन बार ये गाना दिखाना पड़ा। साहिर को इस पर गर्व भी हुआ। तत्कालीन सरकार में कुछ लोगों को कष्ट हुआ, लेकिन कोई पाबंदी नहीं लगी। अपनी बात कहने का हक़ है सबको। संगीतकार एसडी बर्मन को बहुत बुरा लगा, ‘प्यासा’ की चर्चा के साथ गानों की प्रशंसा होती है मगर संगीत की नहीं। इसी बात पर उनका और साहिर का बरसों पुराना साथ हमेशा के लिए छूट गया। नुक्सान पब्लिक का हुआ, सुंदर गीत-संगीत से वंचित हो गयी।

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बताया जाता है कि गुरू को खुद से जल्दी सहमत नहीं होते थे। एक शॉट का कई कई बार री-टेक करते। एक बार माला सिन्हा भी परेशान हो गयी। सुबह से देर रात हो गयी, मगर गुरू संतुष्ट नहीं हुए। जब कैमरे में रील ख़त्म हो गयी, तब उन्हें छुट्टी मिली।

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‘प्यासा’ के साथ और भी कई दिलचस्प घटनाएं जुड़ी हुई हैं। गुरू ने इसे दिलीप कुमार को ज़हन में रख कर लिखा था। लेकिन दिलीप ने मना कर दिया। उन्हें लगा ‘प्यासा’ का विजय और ‘देवदास’ का देव एक ही है, जो उनके अवसाद को बढ़ा देगा। डॉक्टर ने उन्हें ऐसे किरदारों से दूर रहने की सलाह दी थी। मगर गुरू को विश्वास था कि दिलीप कुमार ज़रूर आएंगे। वो सेट पर तय समय से बहुत देर बाद तक उनका इंतज़ार करते रहे। लेकिन जब दिलीप नहीं आये तो गुरू ने खुद विजय बनने का फैसला किया। और बाकी तो हिस्ट्री है कि गुरू ने बड़ी शिद्दत से विजय को जीया। मेरे विचार से ये कहना तो उपयुक्त है कि दिलीप इससे बेहतर नहीं कर सकते थे, लेकिन ये तय है कि वो गुरू से कमतर तो नहीं ही होते। कह सकते हैं दिलीप का नुकसान और गुरू के भाग्य खुलना। राजकपूर को भी अफ़सोस हुआ था, काश प्यासा मेरे हिस्से आयी होती!

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स्क्रिप्ट राइटर अबरार अल्वी ने ‘प्यासा’ के विजय को चित्रकार रखा था। मगर गुरू ने उसे कवि बना दिया ताकि वो साहिर के आत्मा को झिंझोड़ने वाले गीतों की आवाज़ बन सके। कहा जाता है साहिर की ज़िंदगी के तजुर्बे भी इससे जुड़े हुए थे। एक मज़ेदार तथ्य ये भी है मूल स्क्रिप्ट में जॉनी वॉकर को विजय का दोस्त श्याम बताया गया था जो बाद में प्रकाशक के हाथ बिक कर विजय के विरुद्ध हो गया। लेकिन जॉनी की कॉमेडियन छवि आड़े आ गई, पब्लिक क्रूर और लोभी जॉनी को स्वीकार नहीं करेगी। तब श्याम की भूमिका श्याम कपूर को दी गयी और जॉनी के लिए एक नया किरदार गढ़ा गया, अब्दुल सत्तार…सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए…गंभीरता से भारी हो रहे दिमाग को इस गाने से बहुत सकून मिला था। पब्लिक को राहत देने के लिए विजय और मीना का रोमांटिक गाना भी फ्लैशबैक में चलाया गया…हम आपकी आँखों से नींदें ही चुरा लें तो…इसे फिल्म पूरी होने के बाद डिस्ट्रीब्यूटर्स की डिमांड पर बढ़ाया गया था।

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ये भी रिकॉर्ड पर है कि गुरू ने प्यासा की कहानी नरगिस और मधुबाला को सुनाई। उनको बहुत पसंद भी आयी। गुरू मीना के लिए नरगिस को और गुलाब का रोल मधुबाला को देना चाहते थे। लेकिन जब कई दिन तक वे तय नहीं कर पायीं कि उन्हें कौन सा किरदार सूट करेगा तो गुरू ने माला और वहीदा को साइन कर लिया जो उन दिनों फिल्म इंडस्ट्री में नई ही थीं। लेकिन उन्होंने गज़ब की परफॉरमेंस दी। क्रिटिक्स ने खुल कर कहा कि आने वाला वक़्त उन्हीं का है। नरगिस और मधु दोनों को पछतावा ज़रूर हुआ होगा।

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‘प्यासा’ के अंत को लेकर भी अबरार अल्वी और गुरू में बहस हुई। मूल स्क्रिप्ट में विजय को बेरहम ज़माने से लड़ने के लिए अकेला ही छोड़ दिया जाता है। गुरू भी यही चाहते थे। लेकिन अल्वी और यूनिट के बाकी सदस्यों की दृष्टि में विजय को फिर उन्हीं हालात से लड़ने के लिए अकेला छोड़ना अन्याय है। तब  विजय के साथ गुलाब भी गयी। विजय कहता है, आओ दूर चलें जहाँ से फिर दूर न जाना पड़े।

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बताया जाता है कि जॉनी वॉकर पर फिल्माए ‘सर जो तेरा चकराए…’ गाने की धुन सचिन दा को अपने सिद्धांत के विरुद्ध इंग्लिश फिल्म ‘हैरी ब्लैक’ से उठानी पड़ी थी। लेकिन उन्होंने इसका इतनी सुंदरता और चतुराई से भारतीयकरण किया कि ‘हैरी ब्लैक’ बनाने वाले भी नहीं पहचान पाए। दो राय नहीं कि उस दौर में ‘प्यासा’ को बहुत सराहा गया था। और बरसों तक इसके कथानक, निर्देशन और संगीत पर चर्चा होती रही। टाइम्स मैगज़ीन ने 2005 में ‘100 आल टाइम ग्रेट मूवीज़’ में इसे शामिल किया। टाइम्स मैगज़ीन ने ही 2011 में इसे ’10 टॉप रोमांटिक मूवीज़’ में शुमार किया। इंडिया टाइम्स मूवीज़ ने ’25 मस्ट सी बॉलीवुड फिल्म्स’ में रखा। ‘प्यासा’ के बाद भी कई ‘मील का पत्थर’ फ़िल्में बनीं, लेकिन ‘प्यासा’ जैसी कालजई नहीं बनीं। आजकल के जो हालात हैं उसमें तो ‘प्यासा’ को कोई दोबारा बनाने की सोच भी नहीं सकता।

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