कर्नाटक में नाटक का दृश्य बदला है, पटाक्षेप बाकी है

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अभी दृशकर्नाटक में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने के बाद भाजपा ने सरकार बनाने की जो हड़बड़ी दिखाई, यह उसके अतिशय आत्मविश्वास का परिणाम था। भाजपा को दावा पेश करने की हड़बड़ी के बजाय इंतजार करना चाहिए था। उसके लिए बेहतर यह होता कि वह इंतजार करती और बेमेल गठबंधन के बिखरने का इंतजार करती। ऐसा कहने का आधार इसलिए बनता है कि अब तक गंठजोड़ की ज्यादातर सरकारें अपनी आयु पूरी नहीं कर पायी हैं। भाजपा और बसपा के सहयोग से मायावती की बनी सरकार का यही हाल हुआ और झारखंड में झामुमो-भाजपा गठबंधन की सरकार भी चल नहीं पायी थी। वाम मोरचा की सरकारों को छोड़ दें तो अवसरवादिता के तहत किसी भी राज्य में बेमेल गठबंधन की सरकारें चल नहीं पायीं। ताजा उदाहरण बिहार में महागठबंधन की सरकार भी है, जो आधी उम्र बीतते ही बिखर गयी थी। भाजपा के साथ नीतीश को गठजोड़ कर सरकार बनानी पड़ी। केंद्र की स्थिति भी ऐसी ही रही है। जनता पार्टी के साथ शुरू हुआ सिलसिला चंद्रशेखर, वीपी सिंह, देवेगौड़ा, वाजपेयी की सरकारें भी बेमेल गठबंधन के कारण बन कर बिखर गयी थीं।

आने वाले समय में कर्नाटक का गठबंधन भी बिखर जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसलिए कि यह गठबंधन भी बेमेल है। चुनाव के दौरान एक-दूसरे को गाली देने वाले आज साथ हैं।

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भाजपा चोट खायी पार्टी है, इसलिए उसके चुप बैठने की संभावना तो कतई नहीं है। भाजपा को आठ लोग जुटाने हैं। सरकार गठन के बाद भाजपा के लिए उन आठ-दस लोगों को तोड़ना ज्यादा आसान होगा, जो अपनी पार्टी में वाजिब अहमियत न मिल पाने के कारण उपिक्षत होंगे। भाजपा उन्हें मंत्री बनाने का लालच देकर छिटका सकती है। उन्हें पैसे का लोभ भी दे सकती है। जेडीएस को तोड़ना भाजपा के लिए ज्यादा आसान होगा। इसलिए एक और नाटकीय स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता।

  • दीपक कुमार
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