आलोक तोमर की यादः सुप्रिया के प्रेम में आकंठ डूब गया था

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आलोक तोमर अपनी पत्नी को बेहद प्यार करते थे। शादी से पहले सुप्रिया के प्रति उनके प्रेम के कई किस्से हैं। आलोक तोमर के ऐसे किस्से सामने आये हैं।
आलोक तोमर अपनी पत्नी को बेहद प्यार करते थे। शादी से पहले सुप्रिया के प्रति उनके प्रेम के कई किस्से हैं। आलोक तोमर के ऐसे किस्से सामने आये हैं।

आलोक तोमर अपनी पत्नी को बेहद प्यार करते थे। शादी से पहले सुप्रिया के प्रति उनके प्रेम के कई किस्से हैं। आलोक तोमर के ऐसे किस्से सामने आये हैं। वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार हरीश पाठक ने अपनी प्रस्तावित संस्मरणात्मक पुस्तक में इसका जिक्र किया है।

  • हरीश पाठक
हरीश पाठक
हरीश पाठक

अप्रैल 1988 में  ‘जनसत्ता’ का संस्करण मुम्बई से निकला। इसके पहले संपादक बने जयंत मेहता। रिपोर्टिंग टीम को मजबूत करने के लिए आलोक को मुम्बई भेजा। दिल्ली ‘जनसत्ता’ के कई साथी यहॉं आये थे, लांचिंग के लिए। वे सब सुसन डॉक में एक्सप्रेस के गेस्ट हाउस रुके थे। आलोक का कमरा अलग था। तब वह अपने विकासशील प्रेम में गले-गले डूबा था और उसने एक्सप्रेस के तब के फोटो एडिटर मुकेश पारपियानी से सुप्रिया का एक कैलेंडर साइज का फोटो बनवा लिया था। यही नहीं, वह कभी कोलाबा, तो कभी बांद्रा, तो कभी परेल से कुछ सामान खरीदता  और उसे फिर फोटो के ही पास बड़े जतन से रख देता। साथ रह रहे साथी बड़ी संजीदगी से यह देखते। उससे कुछ भी कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी।

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‘धर्मयुग’ वह रोज आता। आते ही सबसे पहले जयंती की सीट पर जाता। उससे बात करने के बाद वह सुदर्शना द्विवेदी, कुमार प्रशान्त, अवधेश व्यास, संजय मासूम से मिलने के बाद मेरे पास आता और हम प्रेस क्लब जाते। मैथी के पराठे के साथ जगजीत सिंह की गजल ‘गम बड़े आते हैं कातिल की निगाहों की तरह’ वह लगभग रोज सुनता। दाऊद इब्राहिम का टेलीफोनिक इंटरव्यू और ‘हम भी रेखा से मिल लिये’ जैसी उसकी स्टोरी खूब चर्चित हो चुकी थीं। चन्द्रा स्वामी उन दिनों विवाद में थे। मैं कवर स्टोरी और राजनीतिक पेज देखता था। मैंने एक दिन तांत्रिकों, बाबाओं पर एक कवर स्टोरी लिखने को कहा तो वह तपाक से बोला, ‘उस पत्रिका में कैसे लिखूंगा, जिसमें हिंदी न जाननेवाले प्रकाशक का नाम हिंदी जाननेवाले सम्पादक से पहले जाता हो। प्रीतीश नन्दी का नाम तब  ‘धर्मयुग’ में प्रकाशक के तौर पर जाता था। फिर हँसा और ‘तांत्रिकों के ताबीज’ शीर्षक से उसने कवर स्टोरी लिखी, जो खूब चर्चित रही।

कुछ दिनों बाद आलोक वापस दिल्ली लौट गया। बाद की  तमाम घटनाएं आपस में लिपटी हुईं हैं, जो बेहद अप्रिय, अरुचिकर और असहज हैं। इनमेँ दिल्ली के एक चर्चित फॉर्म हाउस में एक भव्य पार्टी का होना है, बड़े नौकरशाहों, राजनेताओं, पत्रकारों की इसमें उपस्थिति है। कंवलजीत सिंह नाम के लड़कियों के एक दलाल की इस सम्बंध में गिरफ्तारी है। पुलिस पूछताछ में उसने तमाम राज बेपरदा किये। यह दिल्ली की पत्रकारिता का ऐसा सनसनीखेज कांड बना, जिसने तबकी दिल्ली के ज्यादातर अखबारों की आंतरिक सरंचना को ही हिला दिया था। इसने सबसे ज्यादा असर अखबारों की रिपोर्टिंग टीम पर डाला था। ‘जनसत्ता’ भी इससे बच नहीँ पाया। वहाँ की पूरी रिपोर्टिग टीम ही बदल गयी। किसी को दिल्ली के बाहर भेज दिया, किसी को नौकरी से तो किसी को रिपोर्टिग से ही हटा दिया।

आलोक अब मंगलेश डबराल के साथ रविवारीय के लिए स्टोरी करता। वह एक केबिन में बैठता और यह केबिन प्रभाष जी के केबिन के नजदीक था। यहॉं भी उसने कभी सायकिल चोर तो कभी आत्मसमर्पित डाकुओं द्वारा बरसों से जमे किरायेदारों को निकालने का काम करने और मनचाहा पैसा लेने पर एक जबरदस्त स्टोरी कर दी। वह मोहरसिंह और लोकमन उर्फ लुक्का से भी मिल आया। उनका इंटरव्यू ले आया। पूरे पेज की इस स्टोरी में मोहरसिंह जैसा डाकू कहता है, ‘यह नहीं करेंगे तो जियेंगे कैसे?’

इस बीच मैं ‘धर्मयुग’ की बिक्री, अदालत और सुप्रीम कोर्ट से जीत के बाद, इस्तीफा दे कर ‘कुबेर टाइम्स’ का सम्पादक बन गया। फिर दैनिक ‘हिंदुस्तान’ (भागलपुर संस्करण), ‘नवभारत’ समूह से होता ‘राष्ट्रीय सहारा’ का सम्पादक बना। जहाँ भी रहता, आलोक से सतत सम्पर्क रहता।

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