अटलजी के प्रेरक जीवन के कुछ प्रसंग यहां वर्णित हैं

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2029
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23 जून 1980 को संजय गांधी की दिल्ली में एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई। जनवरी 1980 में ही चुनाव हो गए थे और कांग्रेस फिर से सत्ता में आ चुकी थी वो भी पूर्ण बहुमत के साथ। ऐसे में सत्ता वापसी के कुछ ही महीनों के भीतर संजय गांधी की असमय मौत ने कांग्रेस सहित पूरे देश को हिला कर रख दिया…
उनके अंतिम संस्कार में देशभर के बड़े नेता-अभिनेता जुडे। अटल जी भी पहुंचे थे। पत्रकार वार्ता में जब उनसे संजय गांधी की मौत पर प्रतिक्रिया मांगी गई….तब अटल जी ने कहा – ”ज्वलनम् श्रेय: न च धूमायितं चिरम्”
जिसका मतलब होता है कि अधिक समय तक सुलगते रहने की अपेक्षा एक क्षण का प्रकाश देकर बुझ जाना ज्यादा अच्छा है।
इसी तरह….संजय गांधी की स्मृति में आयोजित एक शोकसभा में गम में डूबे कांग्रेसियों और संजय गांधी के प्रशंसकों से अटल जी ने कहा कि – ” भारत माता की गोद सूनी हुई है..कोख सूनी नही हुई है”
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एक महिला पत्रकार ने जब अटल जी से पूछा कि आप ने शादी क्यों नहीं की तो अटल जी ने ऐसा जवाब दिया कि महिला पत्रकार फिर कुछ और न पूछ सकी।
महिला पत्रकार ने अटल जी से उनके कुंवारे रहने के रहस्य के बारे में पूछा कि आप अभी तक अविवाहित क्यों हैं?
अटल जी ने चुटकी लेते हुए कहा – ”आदर्श पत्नी की खोज में”
महिला पत्रकार ने चौंक कर पूछा- ”तो क्या ऐसी कोई नहीं मिली”
अटल जी ने उदास स्वर में कहा – ”मिली तो थी…पर उसे भी आदर्श पति की तलाश थी”
ऐसे अद्भुत हाजिरजवाब हमारे अटल जी।
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घटना जनवरी 2001 की है…तब अटल जी प्रधानमंत्री थे। दिल्ली के विज्ञान भवन में देश भर की 5 चुनिंदा महिलाओं को उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए स्त्री शक्ति अवार्ड दिया जा रहा था। ये पुरस्कार पाने वाली 5 महिलाओं में से चिन्नापिल्लई भी थी।चिन्नापिल्लई तमिलनाडू में मदुरै के पास पुल्लिसेरी गांव में रहती थी। चिन्नापिलाई ने गरीब और अनपढ़ किसानों के सशक्तिकरण में अहम भूमिका निभाई थी। मंच पर पहुँचते ही चिन्नापिल्लई अटल जी को देखकर भावुक हो गईं और तुरंत उनके पैर छूने को झुकी। लेकिन इसके बाद जो हुआ उससे पूरे विज्ञान भवन में पहले तो दो मिनट तक सन्नाटा छा गया फिर ताबड़तोड़ तालियाँ बजीं। वहां मौजूद लगभग हर कोई भावुक हो गया। हुआ ये कि जैसे ही अटल जी के पैर छूने के लिए चिन्नापिल्लई झुकी..अटल जी ने उन्हें रोका..और खुद झुककर उनके पैर छू लिए। जी हाँ…अटल जी ने खुद हवाई चप्पल पहनी हुई उस महिला के पैर छुए और उनसे आशीर्वाद मांगा ।
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जब पंडित नेहरू की तस्वीर मंत्रालय में लगवाई।
1977 की बात है। जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी की निरंकुश सरकार को बुरी तरह हरा कर केंद्र में सरकार बनाई। उस सरकार में अटल जी की पार्टी जनसंघ भी शामिल थी। मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बनें तो अटल जी भारत के विदेश मंत्री बने। विदेश मंत्री बनने के बाद जब पहली बार अटल जी अपने ऑफिस में गए तो घुसते ही वो रूक गए…उन्हें कुछ अजीब सा लगा। वो समझ गए कि क्या अजीब हुआ है ? उन्होंने फौरन विदेश मंत्रालय (M.E.A.) के अधिकारियों से पूछा कि – ‘’यहाँ सामने की दीवार में जो खाली जगह दिख रही है वहाँ पहले जवाहर लाल नेहरू जी की तस्वीर थी,वो अब नहीं है…कहां गई वो तस्वीर’’ ?
(चूंकि अटल जी सन 1957 से ही सांसद थे इसलिए मंत्रालय भवनों में तो उनके चक्कर लगते ही रहते थे। उन्हें पता होता था कहां क्या है।)
जवाब में अधिकारियों ने बताया कि इमरजेंसी लगाने के बाद मंत्रालय के लोगों में भी कांग्रेस को लेकर बड़ी नफरत है और इसलिए क्षुब्ध होकर किसी ने बड़ी सावधानीपूर्वक वो तस्वीर हटी दी।
इतना सुनना था कि अटल जी थोड़े से कड़क लहजे में बोले कि ‘’वो तस्वीर जहाँ भी है..उसको फौरन ले आइए और यहाँ लगाइए…नहीं मिलती है तो नेहरू जी की कोई दूसरी तस्वीर लगाइए….मगर लगाइए जरूर।‘’
थोड़ा खोजने पर वो तस्वीर मिल गई और उसे वहीं लगा दिया गया जहाँ से उसे उतारा गया था।
मित्रों….इस प्रसंग का ज़िक्र महान इतिहासकार और क्रिकेटविद् श्री रामचंद गुहा ने अपने ब्लाग पर लिखा है। उन्होंने उस वरिष्ठ M.E.A. के अधिकारी का भी जिक्र किया है जो इस प्रसंग का गवाह था।
ऐसे हैं हमारे अटल जी।
मित्रों…इमरजेंसी के बाद इंदिरा जी के प्रति नफरत/कड़वाहट स्वाभाविक थी…फिर क्या देवालय और क्या मंत्रालय…कड़वाहट हर जगह थी। चूँकि नेहरू सीधे सीधे इंदिरा जी से जुड़े थे इसलिए कांग्रेस के कुशासन का ‘बदला’ किसी ने उस तस्वीर को हटाकर अपना ले लिया….लेकिन अटल जी ने इस अनुचित समझा। उस अटल ने जो इमरजेंसी के दौरान महीनों जेल में रहे…अटल जी का तो कुपित होना जायज भी था पर अटल जी तो धर्मराज समान थे। उनको उचित अनुचित के बीच की बहुत बारीक लाइन की भी बडी समझ थी। नेहरू जी के आलोचक होने के वाबजूद वो कई मसलों पर उनका बड़ा सम्मान करते थे। अटल जी खुद कहते थे कि संसद का माहौल तभी बनता था जब नेहरू जी मौजूद रहते थे। खैर…. सन 1977 में जब पूरा देश कांग्रेस की ‘सत्ता-मृत्यु’ पर जश्न मना रहा था तो उस जश्न में भी अटल जी के पैर जमीन पर बने रहे…उसूलों पर खड़े रहे।
लेकिन जब उन्हीं अटल जी ने NDA सरकार (1999-2004) के दौरान संसद के सेंट्रल हॉल में अपनी प्रतिबद्धता के चलते वीर सावरकर की फोटो लगाई तो सारे विपक्ष ने हंगामा खड़ा कर दिया….काश विपक्ष सन 1977 की घटना से सबक ले सकता….काश विपक्ष समझ पाता कि जिस व्यक्ति ने कांग्रेस की मरणावस्था में भी विरोधी होते हुए कांग्रेस का मान बनाए रखा वो भला कैसे वीर सावरकर की तस्वीर लगाने भर से कोई अनुचित काम कर सकता है !
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secularism के मुद्दे पर अटल जी ने भरी संसद में इंदिरा जी की बोलती बंद कर दी !
यह बहस 31 मार्च 1971 की है। बांग्लादेश अपने ‘निर्माण’ की लड़ाई लड़ रहा था और पाकिस्तान उस आंदोलन को बड़ी नृशंसता से कुचल रहा था। संसद में बहस के दौरान अटल जी ने कहा – ” जब कभी शांति को खतरा होगा,स्वतंत्र देशों की स्वाधीनता नष्ट होगी और उपनिवेशवाद को पुराने या नए रूप में लाने की कोशिश की जाएगी तब-तब हमारी आवाज उठेगी।पूर्वी पाकिस्तान की जनता और वहां के लोकप्रिय नेता शेख मुजीबुर्रहमान के साथ हमारा समर्थन है और अगर पूर्वी बंगाल की सरकार को मान्यता देने की मांग भारत के पास आती है तो उसे मान्यता देनें में हमें संकोच नही करना चाहिए। हम शेख मुजीबुर्रहमान का अभिनंदन करना चाहते हैं। मजहब के आधार पर राष्ट्रीयता नहीं चलेगी-यह पूर्वी बंगाल का सबसे पहला पाठ है……”(तभी इंदिरा जी ने टोक दिया)
इंदिरा जी ने कहा – ”आपको और आपकी पार्टी को भी इसे सीखना चाहिए।
इसके जवाब में अटल जी ने कहा – ”उपाध्यक्ष महोदय…जब देश का बंटवारा हुआ उस वक्त तो हमारी पार्टी थी भी नहीं। यदि हम इतने शक्तिशाली थे कि अपने जन्म के पहले ही हमने देश का बंटवारा कर दिया तो इस अपराध को स्वीकार करने के लिए मैं तैयार हूँ। मगर हमारे जन्म के पहले ही बंटवारा हुआ और जो बंटवारा करने के लिए जिम्मेदार हैं मैं उनकी तरफ उंगली नहीं उठाना चाहता।धर्म के नाम पर जिनके सामने देश बंट गया वो हमें किसी भी तरह की सीख नहीं दे सकते हैं।”
6- अटलजी का क्रिकेट प्रेम
अटल जी की एक तस्वीर है भारतीय क्रिकेट टीम के शीर्ष चेहरों के साथ -सचिन तेंदुल्कर,सौरव गांगुली,वीरेंद्र सहवाग,राहुल द्रविड़ और आशीष नेहरा। 2003-04 के पाकिस्तानी दौरे से पहले दिल्ली में अटल जी ने मुलाकात कर भारतीय टीम को एक बल्ला उपहार स्वरूप भेंट किया था और
उस समय पूरी टीम को पाकिस्तान में जो करने के लिए कहा था वह आज क्रिकेट डिप्लोमेसी के लिए मील का पत्थर है। अटलजी ने भारतीय टीम के बड़े खिलाड़ियों से कहा था कि ‘’पाकिस्तान जाकर मैच तो जीतो ही जीतो पर साथ में वहां के लोगों और खिलाड़ियों का दिल भी जीतना। पूरी टीम को मेरी तरफ से शुभकामनाएँ।”
तब भी भारतीय टीम ने श्रृंखला जीत कर अटल जी की बात का मान रखा था। 2002 में हुई भारत-पाक श्रृंखला में भी अटल जी ने पूरी भारतीय टीम से भेंट की थी। ये दिखाता है कि अटल जी पुरानी टहनियों पर भी नई कोपलें उगानें में माहिर थे। अटल जी हर उस खेल से दिल लगा लेते जहाँ भारत के सम्मान की बात होती…पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे अटल जी की असली मंशा पाकिस्तान से रिश्ते बेहतर करने की रही। इसके लिए अटल जी ने खेल को भी एक माध्यम के रूप में देखा और भारतीय टीम का हर तरह से मनोबल बढ़ाया। अटल जी उल्लास के छड़ों में भी देश की फिक्र करते रहते।
7- चुनावी हार से निराश कार्यकर्ताओं को अटलजी कहते थे-
”भारतीय जनती पार्टी चुनाव में कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाली पार्टी नही है। ये 365 दिन चलने वाली पार्टी है। 365 दिन।
…हमारी पृष्ठभूमि खुद को तपा कर राष्ट्रसेवा करने वालों की रही है। मानव सेवा करने वालों की रही है। इस सेवा में लोभ और सत्ता मीलों पीछे है। हमारा इतिहास रहा है कि हमने कभी सत्ता के लिए राजनीति नही की। कभी ईनाम के लिए कार्य नही किए। हम सर्वस्व आहुति देने वालों में से हैं। इस जन्म में ये प्रण लेने वालों में से हैं कि अगला जन्म भी मातृभूमि के ही नाम रहेगा। देश सेवा में सौदे बाजी नही होती और भारतीय जनता पार्टी का एक एक कार्यकर्ता इस बात से परिचित है। हम असफल हो सकते हैं,पराजित नहीं क्योंकि जिसके साथ राम हैं वो कभी पराजित नही हो सकता, हाँ क्षणिक विफलता से सामना जरूर हो सकता है पर अंतिम विजय के नसीबदार हमीं होंगे। मन,आत्मा और जिह्वा- इन सबकी शुद्धि से हमें युद्ध लड़ना है,कर्म करना है औऱ फिर विजय का आनंद लेना है।
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आरक्षण जैसे बेहद संवेदनशील मुद्दे पर क्या थी अटल जी की राय ?
” आरक्षण का कार्य सरकारों ने इतनी जल्दबाज़ी में और फूहड़ता से किया कि सरकार ने ना तो खुद अपने समर्थक दलों को विश्वास में लिया और ना ही देश के भीतर विशेषकर नौजवानो में अनुकूल राय बनाने का प्रयत्न किया। इसके बावजूद यदि पहले दिन ही यह घोषणा कर दी जाती कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के साथ आर्थिक पिछड़ेपन को भी देखा जायेगा और सामाजिक दृष्टि से अग्रणी समझे जाने वाले वर्गों के नौजवानों को भी उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार नौकरियों में कुछ सुरक्षित स्थान दिए जायेंगे तो आरक्षण विरोधी स्वर मुखर ना होते।
नौजवानो को संदेह हुआ की पिछड़े वर्ग के लिए 27% आरक्षण देने की घोषणा किसी सामाजिक न्याय भावना से नहीं बल्कि सत्ता कायम रखने की भावना से प्रेरित है। जनतादल सरकार के ऐसे पतन से ये बात साबित भी हुई। आजादी के बाद से नीतियाँ प्रभावित कम प्रेरित ज्यादा थी, तभी तो दशकों के कालखंड के बाद भी हमारे पिछड़े भाइयों के साथ न्याय नही हो पाया उल्टा खाई और असमान होने लगी।
आरक्षण का मामला इतना नाजुक है की इसे बेहद संभल कर हाथ लगाने की जरुरत है. रोजगार के घटते हुए अवसरों और नौजवानो की बढ़ती हुयी अपेक्षाओं में संतुलन कायम रखना ऊंचे दर्जे की नीतिमत्ता की मांग करता है। यह कार्य ना तो जाती द्वेष को हवा देकर पूरा किया जा सकता है और ना ही इसे वोट की राजनीति से जोड़कर हल निकाला जा सकता है।…इस प्रश्न पर जब तक एक राष्ट्रीय आम सहमति ना हो तब तक इस चिंगारी से खेलना खतरनाक है.”
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चुनावी हवा का रुख मोड़ने वाले अटलजी के चुटीले तीक्ष्ण भाषण-
पहली कहानी : 1991 के लोकसभा चुनावों में अटल जी लखनऊ से उम्मीदवार थे. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी साथ ही होने थे I अटल जी के प्रतिद्वंदी भी मान रहे थे की अटल जी की जीत निश्चित थी I इसीलिए अन्य पार्टियों के विधानसभा वाले उम्मीदवार मतदाताओं से आग्रह कर रहे थे की आप ऊपरवाला (लोकसभा का) वोट अटल जी को भले ही दे देना लेकिन नीचे (विधानसभा) का वोट हमें देना I
अटल जी ने जब ये सुना तो एक आम सभा में बोले – ”अगर आप ऊपर का कुर्ता भाजपा को देंगे और नीचे की धोती किसी और को तो मेरी क्या दशा होगी?” फिर क्या था, बाजी ही पलट गई। यूपी में बीजेपी की पहली बहुमत की सरकार का रास्ता साफ हो गया।
दूसरी कहानी : 1971 के भारत पाक युद्ध के बाद इंदिरा जी की लोकप्रियता बढ़ गयी…इसी का लाभ उठाकर इंदिरा जी ने चुनाव कराया …दिल्ली में जनसंघ पाँचों सीटें हार गयी. उसके तुरंत बाद दिल्ली नगर निगम के चुनाव थे. चुनाव प्रचार आरम्भ करते हुए वाजपयी जी ने कहा ”आप चाहते थे की कांग्रेस देश पर शासन करे आपने उसे वोट दिया…अब कम से कम झाडू मरने का मौका तो दे दीजिये”..
उनकी इस साफगोई से जनसंघ के पक्ष में हवा बंधी और लोगों ने जनसंघ को नगर निगम चुनाव में बहुमत दिलवाया। अटलजी किसी चुनावी हार से हताश होकर बैठ जाने वाले नेता नहीं थे।
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1977 के ऐतिहासिक चुनाव के बाद जब अटल जी की पार्टी यानी भारतीय जनसंघ के जनता पार्टी में विलय का प्रस्ताव आया तो जनसंघ के कार्यकर्ताओं को ये फैसला पसंद नहीं आया. ये बात कार्यकर्ताओं को पच नहीं रही थी की अपनी अलग विचारधारा वाली पार्टी अब विषम विचारधारा वाले दलों के साथ मिल जाए. हालांकि इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन से लोहा लेने में जनसंघ और इसके कार्यकर्ता सबसे आगे थे पर कार्यकर्ताओं को डर था जनता पार्टी में विलय से जनसंघ अपनी विशिष्ट छवि खो देगा और लोग जनसंघ की राष्ट्रवादी विचारधारा से उपजे राष्ट्रहित के कार्यों का श्रेय भी ले लेंगे……. लेकिन अटल जी ने लोकनायक जेपी को वचन दे रखा था पार्टी के विलय का.
अब अटल जी दुविधा में थे….एक तरफ जहां जेपी को दिए गए वचन की लाज रखनी थी वही दूसरी और पार्टी की आत्मा यानी कार्यकर्ताओं को मनाना था. ये काम कठिन था. पर जो माँ सरस्वती का पुत्र हो उसके लिए क्या मुश्किल ? अटल जी ने ये मुश्किल काम सिर्फ दो पंक्तियाँ बोल कर समाप्त कर दिया.
एक रैली में कुपित कार्यकर्ताओं से मुखातिब होकर अटल जी कहा की ……
”आपातकाल के घोर अँधेरे में जनसंघ का दीपक रोशनी का केंद्र था.।
अब आपातकाल की काली रात्रि समाप्त हो चुकी है, अब सूर्योदय हो गया है, दीपक बुझाने का समय हो गया है”
ये सुनकर कार्यकर्ताओं ने सहर्ष पार्टी का फैसला स्वीकार कर लिया….माँ सरस्वती के पुत्र का जादू जो चल गया था. इन दो पंक्तियों में बड़ी सहजता से अटल जी ने एक सिरदर्द बन चुकी समस्या को हल कर दिया. ये जादू था अटल जी का….ये ”ह्यूमर” था अटल जी का…ये अंदाज़ था अटल जी का…ये कौशल था अटल जी का….
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अटलजी ने जब लड़ा था एक साथ तीन लोकसभा चुनाव-
1957 में दूसरे लोकसभा चुनावों में अटल जी ने 3 जगहों से नामांकन भरा था. पहला लखनऊ,दूसरा मथुरा और तीसरा बलरामपुर….
चुनाव बाद जब नतीजे आये तो अटल जी बलरामपुर से लोकसभा चुनाव जीत गए. कुल 482800 मतदाताओं में से 226948 ने वोटिंग में हिस्सा लिया था जिसमे अटल जी को 118380 वोट मिले और उन्होंने कांग्रेस के हैदर हुसैन को लगभग 10 हज़ार वोटों से हराया. किन्तु बाकी दो जगह अटल जी को हार का सामना करना पड़ा.
मथुरा में तो अटल जी की बुरी हार हुयी. उनकी जमानत ही जब्त हो गयी. बात ये थी की ऐन वक़्त पर कांग्रेस को हराने के लिए जनसंघ के मतदाता भी निर्दलीय उम्मीदवार राजा महेंद्र प्रताप के साथ चले गए. राजा साहब के लिए लोगों के दिल में बड़ा आदर था. वो स्वतंत्रता संग्राम में भाग ले चुके थे…और तो और विदेश में गठित स्वतंत्र भारत की सरकार में वो प्रथम राष्ट्रपति चुने गए थे. उनके द्वारा स्थापित ”प्रेम आश्रम” भी शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा काम आकर रहा था.उनका जाट होना भी लाभदायक सिद्ध हुआ. अटल जी को खुद लगा की ऐसे देशभक्त के खिलाफ लड़वाने के लिए उनकी पार्टी इकाई को उन्हें मज़बूर नहीं किया जाना चाहिए था.पर पार्टी को भी अपना विस्तार करना था और उसमे मथुरा अच्छी जगह साबित हो सकती थी.
लखनऊ में भी अटल जी चुनाव हारे पर दूसरे नम्बर पर रहे.कांग्रेस के विजयी उम्मीदवार श्री पुलिन बनर्जी को 69519 वोट मिला जबकि अटल जी को 57034 वोट मिले थे.यदि कम्युनिस्ट उम्मीदवार कुछ और वोट ले जाते तो कांग्रेस का उम्मीदवार हार जाता.पर जनसंघ को हराने के लिए वामपंथी मतदाताओं ने भी अंतिम समय कांग्रेस को वोट कर दिया.
अब आतें है इनसाइड स्टोरी पर कि क्यों अटल जी को 3 जगहों से चुनाव लड़ना पड़ा ?
1957 के काफी पूर्व श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे देवपुरुष की छाया उठ चुकी थी. चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार मिलना मुश्किल था. कौन गाँठ से खर्च कर के जमानत जब्त करवाये? फिर भी चुनाव तो लड़ना ही था. पार्टी के सन्देश को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने का इससे अच्छा अवसर कब आएगा ! अटल जी को यही सोच कर 3 जगहों से लड़ने का फैसला किया गया. अटल जी लखनऊ से लोकसभा उपचुनाव लड़ चुके थे.वहां से जीतना थोड़ा सा मुश्किल था. हाँ पर अटल जी को उस उपचुनाव में भी अच्छे वोट मिले थे जिससे पार्टी का हौसला बढ़ा था. मथुरा में लोकसभा का कोई उम्मीदवार नहीं मिल रहा था,सभी विधानसभा का टिकट चाहते थे (तब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ में होते थे) क्यूंकि विधानसभा लड़ने में पूँजी भी कम लगती. जमानत भी बचायी जा सकती थी. अटल जी पर पार्टी की नज़र पड़ी…अटल जी का थोड़ा बहुत नाम हो गया था..भाषण सुनने लोग आने लगे थे और पार्टी ने सोचा की अगर अटल को चुनाव में लड़ाया जाये तो पार्टी को धन भी मिल सकता था. यही सोचकर अटल जी ने पार्टी हित के लिए तीन तीन जगहों से चुनाव लड़ा.
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ग्वालियर में जब अटलजी हुए कांग्रेस के धोखे का शिकार
उन दिनों ग्वालियर का प्रतिनिधित्व श्री शेज़वालकर करते थे. वे पुनः चुनाव लड़ने के उत्सुक नहीं थे. पूर्व महाराजा (सिंधिया जी) गुना क्षेत्र से चुनकर आये थे. एक दिन अटल जी ने उनसे लॉबी में पूछा की क्या वे ग्वालियर से लड़ने का विचार कर रहे हैं? उन्होंने नकारात्मक उत्तर दिया. किन्तु ऐन वक्त पर उन्होंने ग्वालियर से नामांकन भर दिया. अटल जी के पास इतना वक़्त नहीं था की चुनाव शुरू होने से ठीक पहले वो किसी और क्षेत्र से नामांकन भर पाते.अटल जी को ग्वालियर में बांधे रखने रखने की योजना जिस चतुरता के साथ बनी थी उसकी कहानी जनता दल के गठन के बाद अटल जी को पता चल गयी.
योजना के पीछे दोहरी चाल थी.पहली यह की अटल जी ग्वालियर से ही बंध जाएँ और किसी अन्य क्षेत्र में पार्टी का प्रचार ना कर सकें. दूसरी यह की चुनाव का परिणाम कुछ भी होता उससे कांग्रेस के एक गुट का राजनीतिक उद्देश्य पूरा हो जाता.क्योंकि यदि अटल जी हारते तो प्रतिपक्ष दुर्बल होता और अगर माधव राव सिंधिया हारते (जिसकी सम्भावना बहुत कम थी) तो भी कांग्रेस के एक खेमे का सीमित स्वार्थ पूरा होता. किन्तु श्री सिंधिया के चुनाव हारने की सम्भावना बिल्कुल नहीं थी. वो गुना छोड़ कर ग्वालियर आये थे चुनाव लड़ने. ग्वालियर राज परिवार के लोगों के लिए जनता में बहुत आदर था और सिंधिया जी अपने पिता के एकलौते पुत्र थे तो इसका लाभ मिलना भी स्वाभाविक था. राजमाता विजयराजे सिंधिया का भी प्रभाव कहीं से कम नहीं था.राजमाता के महिमामयी व्यक्तित्व और सिद्धांतों के प्रति उनकी निष्ठां ने लोगों को पार्टी (राजमाता भाजपा में थी) के प्रति आकृष्ट किया था.पुराने जनसंघ और नई भाजपा को ग्वालियर में जो भी सफलता मिलती थी उसमे राजमाता का अहम योगदान था.
अटल जी लिखते हैं की —-
”मैं नहीं जनता की उस चुनाव में मेरी जगह राजमाता अगर चुनाव लड़ती तो उनमें और उनके बेटे की टक्कर में कौन जीतता पर इस तरह की कोई भी टक्कर मैं और मेरी पार्टी टालना चाह रही थी. माँ बेटे के बीच जो खाई उत्पन्न हो गयी थी वो कम से कम मुझे तो अच्छी नहीं लग रही थी.राजनीतिक मतभेद होना एक अलग बात है किन्तु उसकी वजह से माँ और पुत्र के सहज,स्वाभाविक और ममतापूर्ण संबंधों में कटुता आ जाना बिलकुल दूसरी बात है.
यह ठीक है की राजमाता ने मुझसे कहा की मैं नामांकन भरने ग्वालियर अकेले ना जाऊं,वह भी मेरे साथ चलना चाहेंगी. किन्तु मैंने इसके लिए उन्हें कष्ट देना उचित न समझा और उन्हें नामांकन में सम्मिलित होने से दूर रखा गया।
बाद में जब मेरे कुछ मित्रों ने माधव राव सिंधियां से पूछा की वो मेरे खिलाफ चुनाव लड़ने को अचानक क्यों तैयार हो गए तो सिंधिया जी ने जवाब दिया की अटल ने लोकसभा का परचा भरने के बाद चुनौती दी थी कि मेरे खिलाफ चुनाव लड़कर सिंधिया देख लें उन्हें भी अपनी औकात का पता चल जायेगा.
यह बिलकुल मनगढंत कहानी है.कांग्रेसियों ने सिंधिया जी से झूठ बोला था.राजनीतिक विरोधियों के प्रति अशिष्टता का व्यवहार करना मेरे स्वाभाव में नहीं है.श्री सिंधिया के प्रति तो मेरा सहज स्नेह और सम्मान का भाव रहा है,उन्हें जनसंघ का सदस्य भी मैंने ही बनाया था.
यह स्पष्ट है की श्री सिंधिया को ग्वालियर से लड़ने के लिए दबाव डाला गया था. ऐन वक्त पर नामजदगी परचा भर कर मेरे साथ जो व्यवहार किया उसे मैं वचन भंग की संज्ञा तो नहीं दूंगा पर उस आचरण को पारस्परिक संबंधों की कसौटी पर कसने पर उचित भी नहीं ठहरा पाउँगा.सहानुभूति की लहर और श्री सिंधिया का प्रभाव दोनों के कारण मेरी पराजय सुनिश्चित थी. यदि राजा दरवाजे पर आकर वोट की याचना करे तो ना कहना कठिन होता है.किन्तु अगर इंदिरा जी की मौत के प्रति सहानुभूति की लहर ना होती तो भी राजा के चुनाव लड़ते हुए भी भाजपा को व्यापक समर्थन मिलता इसमें कोई शक नहीं है क्यूंकि जम्मू में डॉ.कर्ण सिंह,जो कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव लड़े थे,उनका भूतपूर्व राजा होना उन्हें विजयी नहीं बना सका.वो कांग्रेस प्रत्याशी से हार बैठे.”
अटल जी का राजनीतिक कद शुरू से ही इतना विशाल रहा है कि ये जानते हुए भी कि इंदिरा जी की मौत पर जनता की सहानुभूति का हमें पूरा लाभ मिलेगा,कांग्रेसियों ने साजिश रची क्यूंकि अटल जी के अपार लोकप्रियता से उनकी नस नस में डर था.
खैर कांग्रेस को ईंट का जवाब पत्थर से मिला – कांग्रेस ने जो अटल जी के साथ 1984 में किया …भाजपा ने वही कांग्रेस के साथ 1991 में विदिशा में किया।
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क्यों लाल बहादुर शास्त्री जी की रहस्यमयी मौत के लिए अटल जी खुद को दोषी मानते थे ……और कैसे 3 तरीकों से अटल जी ने शास्त्री जी को सच्ची श्रद्धांजलि दी ।
सन 1965-66 मे भारत-पाक युद्ध हुआ। भारतीय सेना ने अपने चिर परिचित अंदाज़ मे कार्रवाई करते हुए पाकिस्तान को धूल चटा दी। हमारी जाँबाज सेना लाहौर तक घुस गई। वहाँ की हवाई पट्टी और पुलिस स्टेशनों के आस पास माँ भारती के सपूत तिरंगा फहरा रहे थे। युद्द समाप्ति की घोषणा के बाद अंतर्राष्ट्रीय दवाब के चलते प्रधानमंत्री शास्त्री जी औऱ पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान को समझौते के लिए रूस बुलाया गया।
तय कार्यक्रम के मुताबिक समझौता 11 जनवरी 1966 को होना था। यहाँ एक दिन पहले ही भारत मे ये खबर फैल गई कि समझौते के तहत भारत लड़ाई मे जीते हुए भूभाग पाकिस्तान को वापस कर देगा और उसके युद्धबंदियों को भी छोड़ देगा। अटल जी उस समय राज्यसभा के सांसद थे। उन्हें जब पता चला कि समझौते के तहत भारत जीती हुई जमीने पाकिस्तान को वापस करने जा रहा है तो उन्होने सरकार की बहुत ही तीखी आलोचना की। पूरी संसद ने उस दिन अटल जी का रौद्र रूप देखा। उन्होंने कहा ” ये समझौता नही है। ये तो सरासर शहीदों का अपमान है। उनकी शहादत का अपमान है।युद्ध शुरू उन्होंने किया औऱ खत्म हमने…तो हम क्यों समझौते के गलत परिणाम भुगतें…क्या भारत ने वर्साए की संधि से कोई सबक नही लिया जिसके चलते दूसरा विश्वयुद्ध हुआ…हमारा शौर्य…हमारा बलिदान क्या इसलिए था कि विदेश में हारे शत्रु से समझौता किया जाए..इतिहास पहली बार देख रहा होगा जब विजयी पक्ष को समझौते से बदनामी झेलनी पड़ी हो…कौन आगे बलिदान देगा ? कौन लड़ेगा भारत माता की अस्मिता के लिए जब हमें ही उनकी फिक्र नहीं…कैसे हम सृजन करेंगे नव-पीढि़यों में देशभक्ति की, जब हमारे ही जवानों के हौसलों को ऐसे समझौतो से तोड़ा जाएगा…कैसे ? सरकार जवाब दे। युद्ध में भारत का खून बहा है…हम इसी खून से अपना भविष्य सींचेंगे…हमें रूसियों और अमेरिकियों के मरहम की कोई जरूरत नहीं क्योंकि वो मरहम के रूप में ज़ख्म परोस रहे हैं….मुझे शास्त्री जी पर भरोसा है कि वो ऐसा कत्तई नही होने देंगे पर यदि ऐसा हुआ तो मै नही जानता कि वो कैसे भारतवासियों से आँखें मिलाकर बात कर पाएंगे…मैं नही जानता। शास्त्री जी ने जय जवान और जय किसान का नारा तो दे दिया अब वक्त है इस नारे का मान रखने का..।”
पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी।
12 जनवरी को जब भारत मे शास्त्री जी की मौत की खबर फैली तो पूरे देश मे हाहाकार मच गया…उनका नायक…उनका प्रधानमंत्री…उनका सखा अब नहीं रहा…सादगी और त्याग की मूरत अब स्वर्ग सिधार चुकी थी। पर अटल जी का दुख इससे कहीं ज्यादा था…अटल जी को लगता था कि कहीं उनकी बेहद कठोर आलोचना के चलते तो शास्त्री जी को दिल का दौरा नही पड़ा? क्योंकि अटल जी जानते थे कि शास्त्री जी भले दूसरे दल के हों पर उस समय उनसे बड़ा सपूत भारत मे कोई नही था। अटल जी भारी सदमे में थे। उनको लगा कि उनकी आलोचना मे शब्द बहुत ज्यादा कठोर हो गए थे जो शायद शास्त्री जी को वाकई पूछ रहे थे कि कैसे मुँह दिखाएंगे देशवासियों को….कैसे मान रखेंगे जय जवान जय किसान का? अटल जी अब अपने ही किए पर पछता रहे थे…वो सोच रहे थे कि कैसे माफ कर पाउंगा खुद को ताउम्र? लेकिन अटल जी कि ये सोच निर्मूल साबित हुई। अटल जी ने शास्त्री जी के निजी सचिव पी.सी. श्रीवास्तव से बात की और अपनी चिंता प्रकट की…श्रीवास्तव जी ने कहा कि अटल जी आप खुद को ना कोसें…….सोने से पहले मेरी शास्त्री जी से बात हुई थी…वो सामान्य थे। वो बोल रहे थे कि उन्हे पता है विपक्ष ने क्या क्या बोला है उनके खिलाफ, उन्हें यही उम्मीद भी थी.. वो स्वदेश आकर आप लोगों से मिलकर सब चीजें, सारे अनुभव बांटना चाहते थे। आप कृपया खुद को उनकी मौत के लिए जिम्मेदार मत मानिए…वरना ये विषाद आपके अंदर के देशभक्त राजनेता को जीते जी मार देगा ।
तब जाकर अटल जी ने आत्मग्लानि से मुक्त होकर राहत की सांस ली।
अटल जी ने आगे चलकर कई ऐसे काम किए जिसे देखकर शास्त्री जी की आत्मा भी गर्व करती होगी। देश का प्रधानमंत्री होने के बावजूद अटल जी का रहन-सहन,जीवन-यापन सादा ही रहा…जैसे शास्त्री जी का था ।
1999 मे कारगिल युद्द के दौरान भारत ने पाकिस्तान को एक और करारी शिकस्त दी…मानो अटल जी ने ताशकंद का बदला ले लिया हो….यही नहीं…शास्त्री जी के लोकप्रिय नारे जय जवान जय किसान को अटल जी ने एक नया आयाम भी दिया – जय जवान जय किसान जय विज्ञान ।
शायद यही सबसे उपयुक्त श्रद्धांजलि थी शास्त्री जी को अटल जी की तरफ से…..
14-
अटलजी ने इंदिराजी को दुर्गा नहीं कहा था…
इस प्रसंग पर खुद अटल जी ने अपने एक आत्मकथ्य मे लिखा है कि —-
”मै भी उन लोगों मे शामिल था जिंहोने इंदिरा जी के बांग्लादेश के मामले मे सफल नेतृत्व के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी किंतु यह धारणा गलत है कि मैने किसी वक्त उन्हें ‘दुर्गा’ कहा था। मैने उनकी तारीफ जरूर की थी पर उन्हे ‘दुर्गा’ नहीं कहा था। इस तथ्य को मै कई बार स्पष्ट कर चुका हूँ किंतु प्रचलित धारणा इतनी बद्धमूल है कि अभी भी लोग इस बात के लिए मेरी प्रशंसा करते हैं कि मैने संकट काल मे सारे राजनीतिक मतभेदों को ताक पर रखकर सरकार को पूर्ण सहयोग दिया था और इंदिरा जी को ‘दुर्गा’ के रूप मे वर्णित किया था। जब श्रीमती पुपुल जयकर इंदिरा जी की जीवनी लिख रही थी तो वह उसमें इस बात का उल्लेख करना चाहती थीं किंतु मेरे मना करने पर उन्होंने उल्लेख तो नहीं किया पर इस बात की गहरी छानबीन जरूर की कि मैने इंदिरा जी को ‘दुर्गा’ कहा था या नही। संसद की कार्यवाही और उस समय के समाचार पत्रों को देखने के पश्चात उन्हें यह विश्वास हो गया कि था कि मैने ऐसा कुछ नहीं कहा था।
प्रश्न यह है कि यह समाचार फिर फैला कैसे ? मुझे लगता है कि उस समय किसी और नेता ने इंदिरा जी को ‘दुर्गा’ के रूप मे वर्णित किया था और कुछ पत्रों ने उनके कथन को मेरे नाम से छाप दिया ।
इंदिरा जी के साथ संसद मे मेरी नोंक-झोंक होती रहती थी किंतु राजनीतिक मतभेदों को उन्होंने कभी व्यक्तिगत संबंधों मे बाधक नही बनने दिया। ”
15-
आजादी के बाद से यानी लगभग 7 दशक के भारतीय लोकतंत्र मे अकेले सिर्फ अटल जी ही हैं जो चार अलग अलग राज्यों से जीतकर लोकसभा पहुंचे हैं। अभी तक ऐसा कोई भी दूसरा नेता नही है जिसने ये कारनामा किया हो। यही नही चार राज्यों की बात छोड़ भी दे तो अटल जी ही इकलौते ऐसे नेता हैं जिन्होने 6 अलग अलग लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव जीता है। आइए पहले जानते हैं उन 4 राज्यों के बारे मे जहां से अटल जी ने लोकसभा का चुनाव जीता है। ये 4 राज्य हैं –
1.उत्तर प्रदेश
2.दिल्ली
3.मध्य प्रदेश
4.गुजरात
आइए अब जानते है उन 6 लोकसभा क्षेत्रों के बारे मे जहां से अटल जी लोकसभा का चुनाव जीते –
1.बलरामपुर (1957-62 और 1967-71)
2.ग्वालियर (1971-77)
3.नई दिल्ली (1977-80 और 1980-84)
4.विदिशा (1991 – लखनऊ से भी जीतने के बाद अटल जी ने ये सीट छोड़ दी)
5.लखनऊ (1991-96,1996-98,1998-99,1999-04 और 2004-09)
6.गांधीनगर (1996 -लखनऊ से भी जीतने के बाद अटल जी ने ये सीट छोड़ दी)
ये आंकड़े खुद अटल जी की लोकप्रियता की गवाही देते है। कई फिल्मी सितारे और नामी शख़्सियतें अटल जी के खिलाफ इसलिए चुनाव लड़ती थी क्योंकि वो जानते थे कि इस शख़्स से हारकर भी नाम होगा। अटल जी ऐसी शख़्सियत थे जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक स्वीकार्य थे। वो भारत मे कहीं से भी लड़ते जनता का आशीर्वाद उन्हे मिलता। अटल जी के कद के आगे प्रांत और धर्म की विविधिता एक बेईमानी थी।
इस दौरान अटल जी दो बार राज्य सभा के सदस्य भी रहे। 1962 और 1986 मे अटल जी राज्यसभा के लिए चुने गए। 1957 से लेकर 2009 तक सिर्फ 1985 ही ऐसा इकलौता वर्ष था जब अटल जी संसद के सदस्य नही थे । इस तरह अटल जी ने 52 साल संसद मे बिताए हैं। 52 साल भारत की संसद की दीवारें भी ये सोच कर खुद पर इतराती होंगी कि उसने अटल जी को बोलते सुना।
16-
अटलजी के तीखे व्यंग्यबाणों को सुनकर पंडित नेहरु भी ठहाके लगाने को मजबूर हो जाते थे-
बात 1957 के दौर की है जब अटल जी बलरामपुर से कांग्रेस के हैदर हुसैन को हराकर पहली बार संसद पहुंचे थे. लोकसभा में किसी चर्चा के दौरान पंडित नेहरु जी ने अटल जी की पार्टी जनसंघ पर निशाना साधते हुए कहा की ये पार्टी सामाजिक अस्थिरता के लिए जिम्मेदार है…..!
जब बोलने की बारी अटल जी की आई तो अटल जी ने कहा ”मुझे पता है नेहरु जी रोज़ सुबह शीर्षासन करते हैं…खूब करें…पर कम से कम मेरी पार्टी की तस्वीर तो उल्टी ना देखें.”
इतना सुनना था की पंडित नेहरु जी संसद में ही जोर जोर से ठहाका मार मार कर हंसने लगे. नेहरु जी समझ गए थे की इन दो पंक्तियों के जवाब से अटल जी ने ना सिर्फ जनसंघ का पक्ष रखा बल्कि एक बेहद अलग हलके फुल्के अंदाज़ में शब्दों का वो प्रहार किया है जो एक कुशल वक्ता भी घंटो के भाषण के बाद भी ना कर पाता.
अटल जी में ये खूबी थी…वाक्पटुता को संसद में सबसे व्यावहारिक रूप में इस्तेमाल करने का ये आरम्भ था.
पूरी लोकसभा पंडित नेहरु को सुनती थी पर वो अटल जी को सुनते थे..(कुछ और वक्ता भी उनके प्रिय थे जैसे हिरेन मुखर्जी जी)
पंडित नेहरु और अटल जी के बीच भी एक अलग ही सियासी रिश्ता था…ये अटल जी ही थे जिन्होंने नेहरु जी को संसद में हिंदी में बोलने और जवाब देने के लिए मजबूर किया..।
17-
 इंदिराजी की नृशंस हत्या के बाद  नवंबर 1984 को दिल्ली मे सिखों का संहार होने लगा तो अटलजी ने रहा नहीं गया।
31 तारीख को इंदिरा गांधी जी की हत्या हुयी और 1 नवम्बर से ही पूरी दिल्ली को दरिंदों ने दंगों की चादर उढ़ा दी.समय के पहर के साथ ही लाशों की गिनती बढ़ती जा रही थी.अकेले दिल्ली में ही पौने तीन हज़ार सिखों की बर्बरतापूर्वक हत्या हुयी थी. इस दौरान राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह (जो की खुद एक सिख थे) बेबस बने रहे, वो चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे क्यूंकि राजीव गांधी के कलेजे को ठंडक मिले इसके लिए थोड़ी जमीन और हिलनी बाकी थी, भला बड़ा पेड़ जो गिरा था.
ज़ैल सिंह अपने कार्यालय से तत्कालीन दिल्ली भाजपा अध्यक्ष विजय मल्होत्रा को फोन करके दंगो में घिरे सिखों के घर के पते नोट करा रहे थे ताकि भाजपा के कार्यकर्ता उनकी मदद कर सकें।
इस दौरान अटल जी का कार्यकर्ताओं को सख्त निर्देश था की सिखों की रक्षा हर हाल में करनी है चाहे खुद की जान ही क्यों न चली जाये !
दंगों में शुरू में कांग्रेस ने जनता को गुमराह करके रखा और कहा की दिल्ली में सिर्फ कुछ सौ या सवा सौ जानें गयी हैं. अटल जी ने यह सुनते ही घोषणा की ”ये तो साफ़ झूठ है,कम से कम ढाई हज़ार सिखों का नरसंहार हुआ है।”
उनका मानना था कि जिसने भी ये किया है, जो कोई भी आदमी इसमें शामिल है वो इंसान की परिभाषा से कोसों दूर है, पाशविक है, पापी है,धर्मांध है, काफ़िर है।
अटल जी की ये घोषणा उस वक्त के राजनीतिक माहौल में बीजेपी के खिलाफ जा रही थी, लेकिन
अटलजी चुप नहीं बैठे, वह निर्दोष सिखों के नरसंहार के मामले पर हर उस शख्स को कोसते रहे जिसके सामने आगज़नी, हत्याएं हुईं और वह मोहल्ले में चुप खामोश रहा।
इसके बाद चुनाव सर पर थे…इंदिरा गांधी के मौत के बावजूद 4 साल पुरानी भाजपा की दिल्ली में अच्छी पकड़ थी. दिल्ली भाजपा को लगा की वो सारी सीटें जीत लेंगे, पर परिणाम आया तो भाजपा की दिल्ली में शर्मनाक पराजय हुयी थी, जनता ने कांग्रेस को एकमुश्त वोट दिए।
पार्टी के कई नेताओं ने और कार्यकर्ताओं ने इसके लिए इंदिरा जी के प्रति सहानुभूति से ज्यादा दोषी अटल जी के उस बयान को ठहराया जिससे दिल्ली की जनता बीजेपी से खफा हो गई थी। ये बात लेकर भाजपा की दिल्ली इकाई अटल जी के पास पहुंची.दिल्ली यूनिट ने कहा ”अटल जी आपको ऐसा बयान नहीं देना चाहिए था,हम सभी सीट जीत सकते थे पर आपके बयान के चलते हम सभी सीटें हर गए।”
ये सुनकर अटल जी ने उन सभी की तरफ देखते हुए कहा ”मैं ऐसे दसियों चुनाव हारने को तैयार हूँ..।”
अटल जी से ये सुनकर सभी खामोश हो गए। एक वाक्य ने उन सभी के सवालों का जवाब दे दिया था..सभी समझ गए थे कि अटल जी उन लोगो में से हैं जो तख़्त और ताज को लात मार सकते हैं ,उसूलों और आदर्शों को नहीं..वो ऐसे ही अटल नही है..ऐसे थे हमारे श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ! जिनको राजनीति में तमगे की ख्वाहिश नहीं थी,उन्हें सिर्फ देश की फ़िक्र थी….सिर्फ देश की. ना पार्टी की ना खुद की, सिर्फ देश की और देशवासियों की ।
दरअसल उन नेताओं का गुस्सा इस बात पर था की वो लोकसभा पहुँचते पहुँचते रह गए,उन नेताओं को मारे गए लोगों की कोई फ़िक्र नहीं थी…उनके पांव तो संसद की चौखट पर कदम रखने को आतुर थे बजाये पीड़ितों के चौखट के। पर अटल जी के उस एक वाक्य ने न सिर्फ उन सबको आत्ममंथन पर मजबूर किया वरन उन सबके सामने ये बात भी पुख़्ता कर दी की अटल जी के आदर्श हिमालय से भी ऊंचे है और उनके उसूल अटल हैं,इसलिए भाजपा इस बार भले ही 2 सीटें पायी हो पर हम इस अंधरे की छटा से निकल कर कमल खिलाएंगे….जरूर खिलाएंगे…
18-
जनता पार्टी के सरकार में विदेश मंत्री रहते हुए अटल जी एक बार अफगानिस्तान के दौरे पर थे तो उन्होंने वहां के राजदूत से घुमा फिरा कर पूछा की ये ग़ज़नी किधर पड़ता है अफगानिस्तान में ? वहां के अफगानिस्तानी राजदूत ने कहा की ”ये गज़नी क्या है,हम नहीं जानते” ….अटल जी ने भारत आने पर साफ़ किया की अफगानिस्तान के इतिहास में लुटेरे महमूद ग़ज़नवी का कोई स्थान नहीं है….अटल जी ने खुद जनता को ये बताया की जब से उन्होंने ग़ज़नवी के बारे में पढ़ा था तब से ये बात उनके ह्रदय में बाण की तरह चुभ रही थी की भारत माँ के खजाने को उसने कइयों बार लूटा था. पर अटल जी तो वहां के राजदूत से ऐसा सुनकर हतप्रभ रह गए की जिस ग़ज़नवी के किस्सों से यहाँ की किताबें पटी पड़ी हैं असल में उसे वहां के लोगों ने ही दुत्कार दिया था.
दूसरी बात : उसी अफगानिस्तानी दौरे पर अटल जी जिस होटल में रुके थे उस होटल का नाम था ”कनिष्क”…अटल जी ने फिर राजदूत से पुछा की आपके यहाँ होटल का नाम कनिष्क कैसे ? कनिष्क कौन लगता है आपका ? उस अफगानिस्तानी मुसलमान राजदूत का जवाब था की कनिष्क हमारा पूर्वज था…..हम लोग उसी के वंशज है (नोट : कनिष्क का साम्राज्य विस्तार आज के अफगानिस्तान तक था)…..ये सुन कर अटल जी ने पूर्वजों की परंपरा का स्मरण दिलाया। वो बोले- भाई हम आप अलग अलग नहीं है…..हम आज भी उसी साझा संस्कृति के हिस्से हैं..जो प्राचीन काल से गांधार से लेकर जावा-सुमात्रा-स्वर्णभूमि तक
भारत को जोड़े रखती थी।
19-
पोखरण 2 का परीक्षण उनकी चट्टानी दृढ़ता और राष्ट्र रक्षा की उद्दाम इच्छा का प्रतीक था। किस प्रकार तनिक सी भी दुनिया भर में आहट न होने देते हुए उन्होंने अमरीका की चुनौती और धमकियों को रौंद कर पोखरण में जय पताका फहराई। यह उनके जैसे हिम्मत वाले स्वयंसेवक प्रधानमंत्री के बस की ही बात थी। अमरीका ने भारत का अतिशय विरोध किया, प्रतिबंध लगाए, सुपर कम्प्यूटर देने से इनकार किया, हमारे परमाणु कार्यक्रमों के लिए गुरुजल (हेवी वाटर) की आपूर्ति रोक दी, सैन्य उपकरण और आवश्यक सामरिक सामग्री पर रोक लगा दी। अमरीका के चलते पूरा यूरोप हमारे विरुद्ध खड़ा हो गया। लेकिन अटल जी टस से मस नहीं हुए। प्रो. विजय भाटकर जैसे वैज्ञानिकों के नेतृत्व में सुपर कम्प्यूटर अमरीका की लागत से दसवें हिस्से में भारत ने खुद बना लिया। अपने स्वदेशी क्रायोजैनिक इंजन का भी विकास किया। अमरीका को खुद हमारे समक्ष दोस्ती के लिए आना पड़ा। लेकिन हम अमरीका के पास अनुनय-विनय के साथ नहीं गए।
कारगिल युद्ध के समय भी उन्होंने वही जीवटता दिखाई। स्वयं मोर्चों पर सैनिकों का मनोबल बढ़ाने गये। पाकिस्तान को करारा जवाब देने में सेना के हाथ रोके नहीं और जब अमरीका की शरण में गये पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने व्हाइट हाउस बुलाया और संदेशा भेजा कि अटल जी भी वार्ता के लिए आएं तो भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल जी ने साफ मना कर दिया और कहा कि यह हमारा मामला है, इसे हम खुद सुलझाएंगे।
जिस हिम्मत से वे रक्षा के संबंध में दुनिया के समक्ष चट्टानी दृढ़ता के साथ खड़े हो जाते थे उसी हिम्मत के साथ शांति के लिए भी लीक से हटकर फैसले करने की उनमें सामर्थ्य थी। परवेज मुशर्रफ के बार-बार आग्रह करने पर अंतत: उन्हें भारत बुलाया जाए, इसका परामर्श आडवाणी जी ने ही दिया था।मुशर्रफ बेहद घटिया किस्म के फौजी हैं। वाघा सीमा पर जब अटल जी लाहौर बस यात्रा लेकर गये थे तो मुशर्रफ ने उन्हें सलामी नहीं दी थी। हमारे तत्कालीन वायुसेना अध्यक्ष श्री यशवंत टिपनिस ने भी मुशर्रफ के दिल्ली आने पर सलामी नहीं दी और देशभक्तों का मनोबल बढ़ाया। काश पूर्व वायुसेनाध्यक्ष टिपनिस को उनके योग्य महत्वपूर्ण पद और अलंकरण मिला होता। आगरा में मुशर्रफ ने बेईमानी दिखाई और अटल जी ने उन्हें बैरंग वापस भेजा।
स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के माध्यम से पूरे देश को एकता के सूत्र में बांध एक अद्भुत राजमार्ग क्रांति का अटल जी ने श्रीगणेश किया। एक ग्रांट रोड के लिए शेरशाह सूरी को इतना अधिक मान और महत्व दिया जाता है। अटल जी ने शेरशाह सूरी से सौ गुना बड़ा क्रांतिकारी काम किया। यही असाधारण और अभूतपूर्व अध्याय संचार के क्षेत्र में लिखा गया। जब अटल जी ने पूरे देश में मोबाइल टेलीफोन का नया युग रचा। आज जो हर व्यक्ति के हाथ में मोबाइल फोन तथा इंटरनेट क्रांति का वातावरण दिखता है उसके जनक अटल जी ही हैं।
20-
उनको गुस्सा नहीं आता था। पर जब किसी बात पर वे बहुत अधिक आहत होते थे तो चुप हो जाते थे। कुछ ऐसे प्रसंग भी हुए जब वे अपने ही विचार-परिवार के शिखर पुरुषों के प्रति कठोरता भरे आलोचना के शब्द कह सकते थे, लेकिन वे मन के दर्द को भीतर ही भीतर पी गये। लोगों ने उनसे कहा कि अटल जी, आप सच्चे महापुरुष हैं। आप चाहते तो बहुत कुछ बोल जाते और जनता आपका बोलना न्यायोचित भी मान लेती। लेकिन आपने न बोलकर एक स्वयंसेवक की मर्यादा और परिवार की गरिमा को बचा लिया।
एक बार पांचजन्य के स्वदेशी अंक में भारत माता के चीरहरण का प्रतीक चित्र छापा और लिखा कि विदेशी धन और विदेशी मन भारत की अस्मिता पर कैसे प्रहार कर रहा है। अंक बाजार में पहुंचते ही प्रधानमंत्री कार्यालय से अटल जी का फोन आया- आप लोगों ने यह ठीक नहीं किया। भारत माता का चीरहरण हो और हम जिन्दा रहें, ऐसा कैसे हो सकता है। नीतियों में मतभेद को अतिवादी भाषा में नहीं लिखना चाहिए।
कांग्रेस पर प्रहार करते समय श्रीमती सोनिया गांधी पर भी प्रहार होते थे। अटल जी ने हमें रोका और कहा, कांग्रेस को धराशायी करना है, उसके कार्यक्रमों और नीतियों पर प्रहार कीजिए।
किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप या प्रहार करना हमारी राजनीतिक भाषा का अंग नहीं होना चाहिए। नीतियों में मतभेद को अतिवादी भाषा में नहीं लिखना चाहिए।
21-
 जब दो लोगों से
अटलजी ने माफ़ी मांगी थी –
इंदिरा गांधी के निरंकुश आपात्कालीन शासन का जब खात्मा हुआ तो तब संपन्न हुए 1977 के आम लोकसभा चुनावों में युग पुरुष लोकनायक जे.पी. के नेतृत्व में जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत हासिल किया। जे.पी. इस जीत को सत्य की जीत मानते थे । यही वजह थी की नयी सरकार ने अपना शपथ ग्रहण राष्ट्रपति भवन में ना ले कर के महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर लिया । जे.पी. की जनता पार्टी कई दलों का समूह थी जिसमे अलग अलग विचारधारा वाले लोग थे , उसमे कम्युनिस्ट भी थे,उसमे सोशलिस्ट भी थे और दक्षिण पंथी भी थे । जे.पी. जानते थे की इन विचारधाराओं को एक साथ संभल कर आगे बढ़ने में दिक्कत होगी,जे.पी. को डर था की कहीं ये पार्टी बिखर न जाए इसी लिए उन्होंने महात्मा गांधी की समाधि को साक्षी मान कर सरकार का गठन किया और सभी को शपथ दिलाई थी । पर वामपंथियों की भगवा जनसंघ से पटरी ना खा पायी और सरकार टूट गयी । जे.पी. ने अपनी आँखों के सामने जनता पार्टी का विघटन देखा । अटल जी तब उसी जनता पार्टी के सांसद थे (नयी दिल्ली सीट से,शशि भूषण को हराया था ) अटल जी जानते थे की जे.पी. के लिए ये सदमा वैसा ही है जैसा एक बाप के लिए उसके बेटे की मृत्यु ….पर अटल जी चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते थे । अटल जी को यही बात रह रह के खाती थी । इस बात ने अटल जी के दिल में वो घाव कर दिया था जो जेपी की मृत्यु के कारण और भी गहरा हो गया। इसी दुखद घटना को याद करते हुए अटल जी ने ये पंक्तियाँ लिखीं और बापू से और जे.पी. से क्षमा मांगी –
क्षमा करो बापू ! तुम हमको,
वचन भंग के हम अपराधी ।
राजघाट को किया अपावन,
मंज़िल भूले, यात्रा आधी ।
जयप्रकाशजी ! रखो भरोसा,
टूटे सपनो को जोड़ेंगे ।
चिताभस्म की चिंगारी से,
अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे ।
22-
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।
– श्री अटल बिहारी वाजपेयी
23-‘मेरी सबसे बड़ी भूल है राजनीति में आना। इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करुंगा। अध्ययन और अध्यवसाय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाऊंगा। अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य को कुछ दे जाऊंगा, किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर रहा, गांठ की पूंजी भी गंवा बैठा। मन की शांति मर गई। संतोष समाप्त हो गया। एक विचित्र-सा खोखलापन जीवन में भर गया। ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे हैं। क्षणिक स्थाई बनता जा रहा है। जड़ता को स्थायित्व मान कर चलने की प्रवृत्ति पनप रही है।’
– श्री अटल बिहारी वाजपेयी
24- जो कल थे वे आज नहीं है
जो आज हैं वे कल नहीं होंगे
होने न होने का ये क्रम ऐसे ही चलता रहेगा….
हम हैं, हम रहेंगे ! ये भ्रम भी सदा पलता रहेगा….!!
– श्री अटल बिहारी वाजपेयी
25-
बाधायें आती हैं आयें
घिरें प्रलय की घोर घटायें,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालायें,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीघर हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढ़लना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
26-संसद में अटल जी बोल रहे थे तो कलमाड़ीजी (कामनवेल्थ वाले) शोर मचा रहे थे ,उनको बोलने नहीं दे रहे थे, तब अटल जी ने उन्हें मराठी में समझाया. अटल जी ने कहा ‘पहली बार जब हम सदन में चुन कर आये तो हम सिर्फ 2 थे …इतना सुनते ही कलमाड़ी बोले ”आएगा वो दिन फिर आएगा।” तब अटल जी ने कहा -”आएगा तो हम सामना करेंगे ! पर आज तो हम इतनी बड़ी संख्या में बैठे है की आप के साथ तो कोई तुलना नहीं हो सकती. हम विजयी हुए हैं, फिर भी हममें विनम्रता हैं।  पराजय पर (कलमाड़ी जी की तरफ हाथ करते हुए ) तो आत्म मंथन होना चाहिए या ये काम करना
भी हम ही बताएंगे। कम से कम अब तो बोलने दीजिए। लेकिन अटल जी भली भांति जानते थे संसद सत्र की महत्ता इसलिए उन्होंने तुरंत कहा की ‘फ़िलहाल मै इस बहस में पड़ना नहीं चाहता’ …!
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