न्याय व्यवस्था में देर, अंधेर और ढाक के तीन पात अब भी हैं

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आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकल आया है। इसका असर सीधे तौर पर और सबसे पहले बिहार विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा।
आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकल आया है। इसका असर सीधे तौर पर और सबसे पहले बिहार विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा।

हाल में दो याचिकाएं सीधे सुप्रीम कोर्ट में पेश की गई हैं। वे देश के तमाम हाई कोर्ट के गठन, कार्यप्रणाली और उपादेयता पर गहरा असर डाल सकती हैं। उच्च न्यायालय हर राज्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण ताकतवर न्यायिक संस्थान होते हैं। बमुश्किल दस पंद्रह प्रतिशत उनके निर्णयों की समीक्षा या अपील सुप्रीम कोर्ट में करने का नागरिक साहस होता है। सरकारें कर सकती हैं क्योंकि फीस और अन्य खर्चो में मंत्री और अधिकारी मालेमुफ्त दिल-ए-बेरहम का स्थायी आचरण करते रहते हैं। संविधान में हाई कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के बराबर संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं। हाई कोर्ट सरकारी, लोकअधिकारी के आदेश बल्कि विधायिकाओं के अधिनियम तक को बातिल कर सकते हैं। वे तमाम अफसरों के कदाचरण की समीक्षा कर सकते हैं। जनहित के नाम पर हाई कोर्ट जनता के हक में बुनियादी फैसले कर सकते हैं जिससे अन्याय करने की जमीन ही खिसका दी जाए। अनुभव बताता है ऐसा पहले बेहतर होता था। धीरे धीरे न्याय के तेवर जनहित की बजाय व्यवस्थाजनित हो रहे हैं।

विधायिकाओं के लिए प्रतिनिधि निर्वाचन की व्यवस्था है। ग्राम पंचायतों और नगर पंचायतों से लेकर संसद तक बल्कि राष्ट्रपति के भी चुनाव में मतदान के आधार पर अधिकतम पांच वर्षों के लिए निर्वाचन हो सकता है। कई सरकारी नौकरियों में अधिकारी या कर्मी को उसके गृह जिले में पोस्टिंग नहीं दी जा सकती। उससे पक्षपात होने की सम्भावना और आशंका होती है। न्याय के बारे में अंगरेजी आप्त वक्य की घुट्टी पिलाई जाती है कि न्याय केवल होना नहीं चाहिए बल्कि इंसाफ होता दिखना भी चाहिए। यह जुमला लेकिन न्यायपालिका पर चस्पा नहीं होता। उसकी विसंगतियां खुलकर सामने आने लगी हैं। हर छोटी बड़ी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं और इंटरव्यू वगैरह के सरंजाम हैं। कनिष्ठ न्यायपालिका में भी सिविल जज और जिला न्यायाधीश बनने प्रतियोगिता के दंगल से गुजरना पड़ता है। सभी नौकरियों के मरुस्थल में हाई कोर्ट शीतभूमि या मरुद्यान है। वहां पता ही नहीं चलता कौन वकील कब हाई कोर्ट का जज बना दिया जाएगा। न कोई योग्यता निर्धारण का घोषित मापदंड होता है। न ही बौद्धिक प्रतियोगिता होती है।

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हाई कोर्ट जज अकेला सम्मानित पद है जो उसी हाई कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीशों, प्रदेश की सरकार, राज्यपाल वगैरह के सिफारिश खाते से होता केन्द्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट और फिर अंततः राष्ट्रपति भवन के पाथेय तक गोपनीय यात्रा करता चलता है। अमूमन हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और मुख्यमंत्री की युति की चलती ही चलती है। कुछ अपवाद हो सकते हैं। संविधान में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए देश के मुख्य न्यायाधीश से विचारविमर्श के आदेश हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने प्रसिद्ध मुकदमे में विचार विमर्श को सहमति कह दिया। सुप्रीम कोर्ट के सबसे पांच वरिष्ठ जजों की एक घरेलू संस्था को काॅलेजियम का नाम दे दिया। पांच का आंकड़ा बहुत पवित्र है। पंच परमेश्वर, पंजपियारे, पंचतत्व या पंचद्रव्य के जुमले में पांच जजों का काॅलेजियम वर्षों से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुुक्ति करता आ रहा है। प्रतीक में कहें तो पांच उंगलियों से मुट्ठी बनती है। उसमें सब कुछ बंद हो सकता है।

केन्द्र सरकार न्यायविदों और जनप्रतिनिधियों ने वर्षों के अनुभव के बाद निष्कर्ष निकाला। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली बेहतर जनतांत्रिक और विकेन्द्रीकृत होनी चाहिए। उसमें देश की कार्यपालिका की आवाज अनावश्यक रूप से मौन बना दी गई है। कहते हैं कभी वक्त था जब देश के मुख्य न्यायाधीश प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से टेलीफोन पर न्यायाधीशों की नियुक्ति की फाइल को अंजाम तक पहुंचा देते थे। अब सुप्रीम कोर्ट में सात के बदले 31 जजों का प्रावधान है। हाई कोर्ट के जजों की स्वीकृत संख्या में काफी इजाफा हो गया है। हालांकि एक तिहाई पद खाली ही पड़े रहते हैं। सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियां कमीशन अधिनियम पारित किया। सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक अधिकारों का इस्तेमाल करते उसे खारिज कर दिया। काॅलेजियम को गवारा नहीं था उसका महत्वपूर्ण अधिकार सरकारी हुक्म के जरिए ढीलापोला कर दिया जाए।

आलम है देश के उच्च न्यायालयों में दो तिहाई जगहों पर उसी हाई कोर्ट के वकीलों को चयनित कर जज बना दिया जाता है। कुछ बहुत अच्छे वकील होते हैं। कुछ मंदबुद्धि और कुछ वकीलों के बारे में प्रतिकूल टिप्पणियां होती हैं। अंगरेजी के विख्यात कवि लाॅर्ड बायरन ने एक सुबह उठकर कहा। आज अपने कविता संग्रह की समीक्षाएं पढ़कर मैं एक दिन में प्रसिद्ध हो गया हूं। हाई कोर्ट के वकील भी इसी मुद्रा में यकबयक जज बन जाते हैं। वे अपने साथ पूर्वग्रह, दुराग्रह, पसंद और नापसंद सब कुछ लेकर इंसानी आचरण करने से महरूम नहीं किए जा सकते। उसी हाई कोर्ट में पति, पत्नी, भाई, बहन, पत्नी का भाई, चाचा, मामा वगैरह रिश्तेदारों में से कई प्रैक्टिस करते होते हैं। उन्हें सीधे या तिरछे लाभ तो होता है। ऐसा आरोप भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन पर लग चुका और कई अन्य न्यायाधीशों पर भी। तेजतर्रार वकील प्रशांतभूषण ने खुलेआम कहा है। देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों में कई आचरणभ्रष्ट रहे हैं। प्रशांतभूषण पर अदालत की अवमानना का मुकदमा चला। वह अभी ठंडे बस्ते में है। चार वरिष्ठ सुप्रीम कोर्ट जजों ने सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान तो लगाए। यह नहीं कहा कि हाई कोर्ट में उसी राज्य के वकीलों को नियुक्त नहीं होना चाहिए।

उच्चतम नौकरशाहों के लिए आईएएस, आईपीएस जैसी केन्द्रीय परीक्षाएं होती हैं। बहुत योग्य अधिकारी ही अपने राज्य में पदस्थापना पाते हैं। न्यायिक सेवाओं में राज्य के वकीलों को नियुक्त करने के खिलाफ महत्वपूर्ण शोधसंस्थान विधि आयोग ने मजबूत सिफारिशें की हैं। सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की मिलीजुली युति के कारण संपूर्ण रिपोर्टें विस्मृति के गोदामों में पड़ी रहती हैं। हाई कोर्ट में नवनियुक्त न्यायाधीशों में स्वयं कशिश होनी चाहिए कि उन्हें किसी भी राज्य में नियुक्त कर दिया जाए। वह नहीं होता। हाई कोर्ट में अन्य प्रदेश के जज को मुख्य न्यायाधीश बनाया जाता है। यह एक अच्छी परम्परा है। उसके सकारात्मक परिणाम भी निकलते हैं। ऐसा ही सभी पदों पर न्यायाधीशों के लिए हो सकता है। बाहर से आने वाले अतिथि न्यायाधीशों के लिए जनता में उत्सुकता और उत्साह होता है। न्याय व्यवस्था में देर, अंधेर और ढाक के तीन पात अब भी हैं। आगे कब तक रहेंगे वह सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की आपसी समझ और प्रबल जनमत के आग्रह पर निर्भर होना लगता है।

  • कनक तिवारी
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