टीवी न्यूज चैनल लिब्रिटी जर्नलिज्म की नई परिभाषा लिखने में मस्त

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बेरोजगारी पर बहस नयी नहीं, लेकिन सेन्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट ने बहस को नया जीवन दे दिया है।
बेरोजगारी पर बहस नयी नहीं, लेकिन सेन्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) की ताजा रिपोर्ट ने बहस को नया जीवन दे दिया है।

टीवी न्यूज चैनल लिब्रिटी जर्नलिज्म की नई परिभाषा लिखने में मस्त हैं। इस कवायद में महिमागान से लेकर चरित्रहनन तक हर हथकंडे अपनाए जा रहे।

  • अनिल भास्कर

टीवी न्यूज चैनल जो पत्रकारिता कर रहे हैं, उसमें देश, समाज, आम जनता कहां है? यह एक यक्ष प्रश्न है। ये सभी या तो नेपथ्य में हैं या फिर हाशिये पर। जनपक्षधरता उनकी संपादकीय नीति में शायद फिट नहीं बैठती। लिहाज़ा सेलिब्रिटी जर्नलिज्म की नई परिभाषा लिखने में मस्त हैं। इस कवायद में महिमागान से लेकर चरित्रहनन तक हर हथकंडे अपनाए जा रहे।

राजनीतिक दलों की तरह शायद उन्हें भी लगता है कि जनसरोकारों की हैसियत हाशिये पर रखे जाने भर की ही है। मुख्यधारा तो सिर्फ स्टारडम के लिए है। स्टार चाहे राजनीति का हो, सिनेमा, क्रिकेट, म्यूजिक या फिर कारोबार का। वैसे बहुबली माफिया सरगनाओं को भी वे अपनी बनाई नायकों की सूची में ही रखते हैं।

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सुशांत सिंह का ताजा उदाहरण उठा लीजिये। कुछ चैनलों ने तो इसे महीनों इस तरह पेश किया जैसे सिंह परिवार को इंसाफ और रिया चक्रवर्ती को फांसी दिलाकर ही छोड़ेंगे। मगर जब एम्स के डॉक्टरों की रिपोर्ट उनके गढ़े सच और मंसूबों से मेल नहीं खाई तो सब पलटूराम बन गए। सुशांत के बहाने पहले बॉलीवुड में भाई-भतीजावाद और फिर ड्रग्स सिंडिकेट को लेकर उठे सवालों को ऐसा विन्यास-विस्तार दिया जैसे फ़िल्म उद्योग में स्वच्छता अभियान को अंतिम परिणति तक पहुंचाकर ही दम लेंगे। मगर जल्द ही इस मुद्दे से भी पीछा छुड़ा लिया।

माही ने जितनी सादगी से सन्यास की घोषणा की, चैनलों ने उतने ही आडम्बर के साथ इस खबर की पैकेजिंग कर डाली। ऐश्वर्या, करीना का मां बनना हो या दीपिका-रणवीर की शादी- सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी भी प्राइम टाइम सब्जेक्ट बनती रही। मोदी का मोर को दाना चुगाना हो या अलसुबह योगासन- उनसे जुड़ी हर आम गतिविधि बिग ब्रेकिंग है चैनलों के लिए। एक बार एक चैनल ने बोरवेल से प्रिंस को निकालने का आपवादिक प्रयोग किया। मानवीय पहलू के दम से सफल भी रहा, पर दोबारा किसी ने प्रिंस को गटर, गड्ढे या बोरवेल से निकालने की जहमत नहीं उठाई।

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बेरोज़गारी, कारोबारी मंदी, सीमांत वर्ग की दुश्वारियां, महंगाई का अभिशाप, अर्थव्यवस्था में गिरावट, किसानों की दुर्दशा, शिक्षा-स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण जैसे स्थूल आधार वाले मुद्दे जो निम्न और निम्न-मध्य वर्ग की ज़िंदगी पर सीधा असर डालते हैं, इन पर सुशांत को इंसाफ जैसी कोई मुहिम इस चैनलों ने 24 घण्टे के लिए भी चलाई हो तो बताइए। मुर्गा लड़ाने वाली डिबेट से आगे बढ़कर कोई इनसाइड स्टोरी सामने लाई कभी? हां, किसी भी मुद्दे को सांप्रदायिकता के खांचे में बांटकर उन्माद की जमीन तैयार करने में इनकी महारत के कायल जरूर हैं हम। कोई भी हालिया घटना उठा लीजिए, खबर नहीं तो कम से कम विचारों के दंगल में जनमानस को मजहबी आधार पर बांटने का इनका खास हुनर जरूर लोहा मनवा लेगा आपसे। आप इसे मसाला जर्नलिज्म भी कह सकते हैं, जो वस्तुतः पीत पत्रकारिता का चरमफल है। मिशन से मसान बन रही मीडिया के लिए इससे गहरा गर्त भी हो सकता है, इसकी कल्पना फिलहाल तो मुश्किल नज़र आती है।

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