आत्मनिर्भर भारत बरक्स सांसदों के दत्तक गांव

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‘बहुत हुई मंहगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार।।’ नारे पर रीझे भारतीय जनमानस को शायद अब पेट्रोल-डीजल सहित अन्य उपभोक्ता सामग्री में मंहगाई नहीं सताती। इसलिए अभी और मंहगाई के लिए तैयार ही रहें श्रीमान ! यह कह रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे
‘बहुत हुई मंहगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार।।’ नारे पर रीझे भारतीय जनमानस को शायद अब पेट्रोल-डीजल सहित अन्य उपभोक्ता सामग्री में मंहगाई नहीं सताती। इसलिए अभी और मंहगाई के लिए तैयार ही रहें श्रीमान ! यह कह रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे

आत्मनिर्भर भारत बरक्स सांसदों के दत्तक गांव। कोरोना काल में प्रदानमंत्री नरेंद्र मोदी की सांसदों द्वारा गांव गोद लेने की महत्कांक्षी योजना आकलन का अनुकूल वक्त है। गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में यह महत्वपूर्ण योजना थी।आज जब फिर आत्मनिर्भरता की बात हो रही है तो ऐसे में पुराने प्रयोग पर चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार श्याम किशोर चौबे। 

  • श्याम किशोर चौबे

गांव कुम्हारडीह, पंचायत रतनपुर, प्रखंड गोविंदपुर, जिला धनबाद के मुखिया मिहिर मंडल का दर्द है कि यह पंचायत सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत चयनित की गई थी, लेकिन चार वर्ष बाद भी इसकी कहानी वही है, जो पहले थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में यह अद्भुत योजना लांच की थी। इसके तहत हर सांसद को अपने संसदीय क्षेत्र के किसी एक गांव/ पंचायत का चयन कर उसमें तमाम सरकारी योजनाएं लागू करानी थीं, ताकि वह बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, स्वरोजगार आदि से लैस आदर्श बन सके। यानी आत्मनिर्भर बन सके। यह एक सराहनीय अफसाना था, जो अंजाम तक नहीं पहुंच सका।

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प्रधानमंत्री द्वारा गोद लिए गए बनारस के गांव की कहानी भले ही चकाचक हो, लेकिन शेष भारत में वैसा नहीं हो सका, जैसा मोदी का सपना था। कुम्हारडीह भी कोई मामूली गांव नहीं है। इसके सांसद हैं पीएन सिंह, जो तीसरी मर्तबा सांसद चुने गए हैं। वे राज्य में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष तथा झारखंड सरकार में मंत्री रह चुके हैं। उन्होंने अपना राजनीतिक कैरियर श्रमिक यूनियन और वार्ड कमिश्नर से प्रारंभ किया था। वे धनबाद जिला भाजपा के अध्यक्ष भी रहे। कहने का मतलब यह कि वे जमीनी नेता हैं, जिनकी धनबाद से लेकर रांची और दिल्ली तक पूछ है। इसके बावजूद महज एक पंचायत का सर्वांगीण विकास नहीं करा सके। यूं, खनिज क्षेत्र में, वह भी प्राइम कोल उत्पादक धनबाद जैसे जिले में, कुछ न कुछ विकास तो स्वतः होता रहता है, लेकिन जहां तक आत्मनिर्भरता का सवाल है, वही काफी पीछे रह जाता है। यह गांव स्वर्णिम चतुर्भुज के अंतर्गत मशहूर सिक्स लेन जीटी रोड पर धनबाद शहर से महज 12 किलोमीटर दूर और एक तरह से धनबाद के ही अंग गोविंदपुर प्रखंड मुख्यालय से सटा हुआ है। इसके बावजूद इसकी मनोवांछित तरक्की नहीं हो सकी तो बाकी के लिए सोचना फिजूल ही होगा।

रतनपुर पंचायत की कौन कहे, गोद लिये गये कुम्हारडीह गांव तक यदि सीनियर लीडर और सांसद की चाहना के बावजूद आत्मनिर्भरता नहीं पहुंच सकी तो इसके कारणों पर विचार का यही सबसे अधिक उचित समय है। कोरोना काल में मची आर्थिक-सामाजिक तबाही के बीच मोदी महोदय और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अच्छे दिनों के सुनहरे ख्वाब देखते हुए जब लगभग 21 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज की घोषणा की तो उनके लबों से आनंदित करनेवाली एक अत्यंत आकर्षक लाइन बार-बार गूंजती थी, यह आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का प्रयास है। इस लिहाज से इस आलेख के शीर्षक और सबसे पहले कुम्हारडीह की चर्चा के आईने में आत्मनिर्भर भारत की परिकल्पना का प्रतिपरीक्षण आवश्यक होगा।

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आजादी के आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी अक्सर कहा करते थे, भारत गांवों-किसानों का देश है। अपनी इस मूल प्रकृति-प्रवृत्ति से यह देश आजादी के 70 वर्षों बाद भी नहीं उबर पाया है। बेशक, आजादी के बाद और खासकर इस 21वीं सदी में अंधाधुंध शहरीकरण हुआ, फिर भी अमूमन 70 फीसद आबादी गांवों में ही है और उसकी हालत छोटे से झारखंड की हालिया घटना से समझा जा सकती है। सवा तीन करोड़ आबादी वाले इस राज्य में कोरोना संकट के कारण रोजी-रोजगार पर बन आने के कारण अभी तक साढ़े चार लाख से अधिक कामगार परदेस त्यागकर भागाभागी में देस वापस आ गए हैं/ ले आए गए हैं। दो जून की रोटी के लिए परदेस का निहोरा करनेवाले झारखंडी कामगारों की खासी तादाद अब भी नहीं लौटी है। परदेस जा बसे इन कामगारों में चालक, मिस्त्री, फीटर, प्लंबर, वेल्डर जैसे हुनरमंद कुशल श्रमिकों की संख्या कम नहीं है। वे हुनरमंद हैं, इसी कारण उनको मुंबई, सूरत, दिल्ली, तमिलनाडु, लेह, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश आदि-आदि शहरों/ राज्यों में रोजगार की पनाह मिली थी। इनको यदि अपने गांव या जिले अथवा राज्य में ही यथोचित काम-धंधा मिल जाता तो ये परदेस गमन कतई न करते, शायद सोचते भी नहीं।

एक बार फिर लौटते हैं, सांसद आदर्श ग्राम योजना की ओर। यह महत्वाकांक्षी योजना फेल क्यों हो गई, इस पर विचार करना जरूरी तो है ही, वक्त का तकाजा भी है। इसका कारण पता कर निवारण कर लिया जाये तो हम आत्मनिर्भर भारत की ओर एक कदम बढ़ा देंगे या फिर जिस उत्साह के साथ मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन परदेसी कामगारों को विशेष रेल, यहां तक कि जहाज से भी ला रहे हैं, उसमें अंतर्निहित लक्ष्य भी पूरा हो जाएगा कि यदि ये कामगार घर की रोजी करना चाहें तो उसे मुहैया कराने का जतन किया जाएगा।

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आत्मनिर्भर भारत के साथ आत्मनिर्भर झारखंड का कनेक्शन जुड़ा हुआ है। आप चाहें तो झारखंड की जगह और भी कोई नाम बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि-आदि लिख सकते हैं। आत्मनिर्भरता का प्रश्न खासकर हिंदी पट्टी के हर राज्य पर समान रूप से लागू होता है। बहरहाल, जब सांसद आदर्श ग्राम योजना लागू की गई थी तो झारखंड समेत कई राज्यों में भाजपा की ही सरकार थी। केंद्र और राज्य के बीच कोई राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता नहीं थी। सच तो यह था कि तब केंद्र के प्रति राज्य-सत्ता का सेवा-समर्पण भाव अधिक था। आखिर मोदी के आशीर्वाद से ही वह सत्ता में आई थी और महफूज थी। इसके बावजूद झारखंड के बीस सांसद बीस गांवों/ पंचायतों का उद्धार न कर सके। इस संदर्भ में एक सांसद का दर्द सुनिये। इस टास्क से हम खुद भी उत्साहित थे। मैंने प्रश्नगत गांव/ पंचायत का नाम देने में थोड़ा विलंब किया तो जिला प्रशासन से बार-बार रिमांइडर आता रहा। नाम देने के बाद ऐसा लगा, जैसे हमारी जवाबदेही खत्म हो गई या प्रशासन ने मान लिया कि बस इतना ही करना था। सामुदायिक विकास के लिए सरकार की शताधिक योजनाओं में से संबंधित क्षेत्र के लिए उपयुक्त योजनाओं के चयन हेतु ग्रामसभा की गई। यह प्रक्रिया पूरी कर हमने प्रस्ताव प्रशासन को सौंप दिया। उसके बाद इफ-बट का जो दौर शुरू हुआ, उसने खत्म होने का नाम ही न लिया। थोड़ा बहुत कुछ काम हुआ तो हुआ, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। इस योजना के लिए न कोई विशेष ईयरमाक्र्ड प्लान था, न ही उसके नाम किसी फंड का प्रावधान था। राज्य और केंद्र सरकार की योजनाओं में से ही चयन कर उनपर काम कराना था। इंप्लीमेंटिंग एजेंसी ब्यूरोक्रेसी ही है, जो बहुत कान नहीं देती। जब एक राज्य में उंगलियों पर गिने जाने लायक चिह्नित गांवों/ पंचायतों को विकास की पटरी पर न लाया जा सका तो समुच्चय के सर्वांगीण विकास पर सवालिया निशान लगा ही रहेगा। यह एक गंभीर और ज्वलंत मसला है, जिस पर जनप्रतिनिधि, ब्यूरोक्रेसी, सरकार और समाज हर किसी को गंभीर होना पड़ेगा और पड़ताल भी करनी होगी कि सदेच्छा से लागू की गईं सरकारी योजनाएं अपनी मूल भावना और स्वरूप के साथ धरातल पर क्यों नहीं उतर पाती हैं।

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कोरोना का यह उफान काल संवदेनशील और जागरूक लोगों के लिए चिंतन काल भी है, क्योंकि अबतक के अपने दो-ढाई महीने के प्रभाव काल में ही इस अदृश्य वायरस ने विकास और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सामाजिकता को उलट-पुलट कर, तोड़-मरोड़ कर रख दिया है। एक तो यह देश पहले से ही 11 वर्षों के न्यूनतम स्तर 3.1 प्रतिशत जीडीपी दर पर जैसे-तैसे रेंग रहा था, कोरोना ने उसे माइनस की हद तक पहुंचा दिया है। ठीक ऐसे ही वक्त पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार-2 ने अपना एक साल और झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने पांच महीने पूरा किया है। दोनों सरकारें अलग-अलग राजनीतिक नस्लों की हैं। चुनौतियां दोनों के ही सामने हैं। हालांकि राजनीति, पालिटिकल पार्टी और राजनेताओं के सामने हर दिन, हर पल चुनौतियां रहती ही हैं, लेकिन अभी तो एक  लाइलाज अतिसंक्रामक बीमारी ने अकस्मात और अवांछित आपातकाल ला दिया है। ऐसे में बहुत ही सुचिंतित कदम, वह भी फूंक-फूंककर उठाना होगा। एक तरह से शून्य से सैकड़ा तक का सफर तय करना है। यक्ष प्रश्न यह भी है कि जिन नगरों/ राज्यों से कामगारों की भारी फौज अपने पैतृक राज्य को वापस हो गई, यदि वह न लौटे तो उन महिमामंडित नगरों/राज्यों का क्या होगा?

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आत्मनिर्भर भारत का मतलब किसानों, मजदूरों और गांवों, कस्बों की आत्मनिर्भरता से बहुत ताल्लुक रखता है। जहां गरीबी है, बेरोजगारी है, अशिक्षा है, अस्वास्थ्यप्रद परिस्थितियां हैं, उनको आत्मनिर्भरता की ओर मोड़ना कठिन टास्क है। ये क्षेत्र हालांकि कम लागत में साधे जा सकते हैं, जबकि कारपोरेट समाज का पेट बहुत बड़ा है और जाने-अनजाने तरक्की की राह अक्सर उधर ही मुड़ जाया करती है। अपने गांव और किसान-मजदूर तथा हुनरमंद लोग यदि आत्मनिर्भरता की दहलीज पर खड़े न किये जा सके तो एलईडी लाइट में जगमगाते शहर विकास का पैमाना नहीं बन पाएंगे। दूसरी ओर सांसद आदर्श ग्राम योजना बता रही है कि विधायिका, कार्यपालिका और जनता में तालमेल बिगड़ा हुआ है। ऐसे में कहीं ऐसा न हो कि 2020 में दिया गया मोदी का आत्मनिर्भर भारत का नारा 1971-72 में इंदिरा गांधी के नारे गरीबी हटाओ का समानार्थी साबित होने लगे।

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