अरे रामा रिमझिम बरसे बदरिया कि नांहि घरे आए संवरिया ना

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  • मिथिलेश कुमार सिंह

सावन ने दस्तक दे दी है और हम दिमाग से मिर्जापुर में हैं। बड़े शहरों में ऐसे मौसम आनी- जानी होते हैं। क्या पटना और क्या भोपाल जहां इन दिनों अपना रैनबसेरा है- हर जगह मची हुई है लगातार दौड़ने, लगातार छिछियाने, लगातार रिरियाने और लगातार कनपटीमार होने की कभी खत्म न होने जैसी बेचैनी। हम ऐसी दुनिया से थोड़ी देर को आजाद होना चाहते थे, सो चले आये मिर्जापुर।

हम कजरी की धुन पर नाचना चाहते हैं और चाहते हैं कि यह गवनी- बजवनी जीवन से कभी विदा न हो। कितने तीज- त्योहार खा गयीं हमारी जरूरतें और हमारी दुश्वारियां- क्या इस ओर भी आपका ध्यान जाता है कभी? हमारे लोकजीवन के कितने ज़रूरी शब्द मर गये- इसका कोई हिसाब है आपके पास? क्या आपको पता है कि हमारे- आपके पुरखों ने शताब्दियों की कितनी सघन मेहनत के बाद ,किन- किन दीगर जुबानों के शब्दों की मूल ध्वनियों को अपने काम और अपनी बोलचाल में शुमार किया होगा?

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भोजपुरी समाज में जिस फजीरे शब्द का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है, क्या आपको पता है कि वह मूल रूप से फारसी का शब्द है जो पहले उर्दू में आया और फिर भोजपुरी में? फ़जी़र शब्द फ़ज़र से बना है। बेरे फ़ज़र। अलसुबह। क्या आपको पता है शब्द गायब हो रहे हैं- बहुत तेजी से हमारे- आपके जीवन से? यह हाल सिर्फ शहरों का नहीं है। गांव भी इसकी चपेट में हैं, गोकि रफ्तार थोड़ी धीमी है।

हम अपने उन्हीं गुमशुदा संगियों की तलाश में मिर्जापुर पहुंचे हैं- यह पता करने कि पुरखों ने जिस अलबेली भाषा का ईजाद किया होगा बरसों बरस की आंधी- पानी को झेलते हुए, वह है भी नहीं? है तो किस हाल में? अब वहां घर घर झूले पड़ते हैं या वह परंपरा भी इतिहास हो गयी? यह मरती हुई नदियों को बचाने के जतन जैसा है, यह उस परंपरा की हिफाजत का जतन है जिसकी हरियाली बाजार लील गया। यह दुर्निवार संकट से उन सपनों को बचाने का जतन है जिन्होंने कभी हारना नहीं सीखा। मिर्जापुर, बहो।बहते रहो। ऐसे ही। यूं ही।

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