मध्यप्रदेशः भाजपा की जीत के दावे में लोचे भी कम नहीं हैं

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  • भोपाल से बब्बन सिंह

खेती-किसानी के मोर्चे पर मिली शुरुआती बढ़त ही शिवराज के लिए अंतिम दो साल से काल बन रही है। राज्य में सोयाबीन, कपास और प्याज की खेती करने वाले किसानों का असंतोष शिवराज की सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। फसलों के समर्थन मूल्य और बाजार मूल्य के अंतर के भुगतान के लिए शुरू भावांतर योजना के लिए सरकार के खजाने में पैसा नहीं है। मालवा-निमाड़ अंचल में किसानों की समस्या से उत्पन्न मंदसौर कांड की गूंज अब भी कायम है। उस आंदोलन के दौरान पुलिस की गोलियों से 6 किसानों की मौत हो गई थी। इस साल बरसी पर मंदसौर आकर राहुल गांधी ने शासन में आने के 10 दिनों के अन्दर किसानों के ऋण माफ़ करने की जो घोषणा की। उसे लोग खूब याद कर रहे हैं। कर्मचारी नाराज, किसान खफा, सवर्ण दुखी। ये सब भाजपा के सिरदर्द बन सकते हैं। प्रदेश में करीब 7 लाख सरकारी कर्मचारी हैं, जिनमें अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारियों की संख्या करीब 35 फीसदी और सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के कर्मचारियों की संख्या 65 फीसदी बतायी जाती है।

आर्थिक मोर्चे पर मध्यप्रदेश की हालत ज्यादा ख़राब है। दो लाख करोड़ रुपए से अधिक कर्ज वाली सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन बांटने के लिए हर दूसरे-तीसरे महीने इधर-उधर से कर्ज लेकर काम चला रही है। महिलाओं पर अत्याचार और मासूमों से बलात्कार के मामले में राज्य का लगातार सुर्ख़ियों में बने रहना, इस चुनाव में भाजपा के सामने चुनौती बनी हुई है। इससे इतर आम लोग व्यापम और केंद्र के राफेल विमान खरीद घोटाले पर चौक-चौराहों पर खुली बहस कर रहे हैं। वे इस बात से भी नाराज हैं कि अधिकारियों को भ्रष्टाचार की खुली छूट मिली है और बहुत सारे मामले में इसके लिए मुख्यमंत्री आवास को जिम्मेदार माना जाता है।

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चंबल और नर्मदा क्षेत्र में सवर्ण तबका एससी/एसटी एक्ट पर केंद्र सरकार के पलटी मारने पर भाजपा से बेहद नाराज है। नाराजगी  इतनी ज्यादा है कि सवर्ण कर्मचारी संगठन सपॉक्स अब बाकायदा राजनीतिक दल की शक्ल ले चुका है और सभी 230 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने के फेर में है। एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून पर सबसे ज्यादा विरोध भी भाजपा और उसके नेताओं का ही हो रहा है, लेकिन सवर्णों के विरोध के लिए अकेले एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून ही नहीं है।  मध्यप्रदेश में सवर्णों के इस गुस्से की एक कहानी है।  कांग्रेस शासन में 2002 में एससी-एसटी को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए कानून बनाया गया था।  इसको हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। 30 अप्रैल 2016 को जबलपुर हाईकोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया और 2002 से 2016 तक के तमाम पदोन्नति को रद्द करने के आदेश दिए।  हाईकोर्ट के इस फैसले के विरोध में एससी-एसटी के संगठन, अजाक्स के सम्मेलन में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने मंच से कहा था कि हमारे होते हुए कोई माई का लाल आरक्षण समाप्त नहीं कर सकता। फिलहाल यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। शिवराज सरकार के इस रवैये से अनारक्षित वर्ग के कर्मचारियों में नाराजगी पहले से ही बनी हुई थी। ताजा विवाद में शिवराज द्वारा दिया गया “माई का लाल” बयान को सवर्णों ने पकड़ लिया है। 2016 में ही शिवराज सरकार के दलितों के पुरोहित बनाने के फैसले को लेकर भी विवाद की स्थिति बनी थी। इसके तहत एससी की आर्थिक व सामाजिक उन्नति के लिए दलित युवाओं को अनुष्ठान, कथा, पूजन और वैवाहिक संस्कार का प्रशिक्षण देने की बात थी। इस फैसले का  ब्राह्मण समाज द्वारा तीखा विरोध किया गया था।

उपरोक्त कारणों से मध्यप्रदेश में सरकारी कर्मचारियों का जाति के आधार पर विभाजन हो गया है, जिसमें एक तरफ सपाक्स के बैनर तले सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के कर्मचारी हैं तो दूसरी तरफ अजाक्स के बैनर तले अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारी हैं। प्रदेश में करीब 7 लाख सरकारी कर्मचारी हैं, जिनमें अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के कर्मचारियों की संख्या करीब 35 फीसदी और सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के कर्मचारियों की संख्या 65 फीसदी बतायी जाती है। इसलिए  सपाक्स की नाराजगी शिवराज और भाजपा पर भारी पड़ सकती है। सपाक्स चित्रकूट, मुंगावली और कोलारस विधानसभा के उपचुनाव में सरकार के खिलाफ अभियान चला चुका है।

इन जमीनी हकीकत के अलावा पिछले दो चुनावों में भाजपा के सबसे बड़े चुनावी रणनीतिक नेता अनिल माधव दवे (अब इस दुनिया में नहीं हैं) और दूसरे रणनीतिक नेता नरेन्द्र सिंह तोमर की सहभागिता बहुत सीमित हो गई है। यहां तक कि चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष होने के बावजूद तोमर को अपनी बेटी को सीट दिलाने के लिए भी एड़ी-चोटी का जोड़ लगाना पड़ रहा है। इसके साथ ही नरेंद्र मोदी व अमित शाह की नाराजगी के कारण भी शिवराज के नेतृत्व की धमक बहुत फीकी हो गई है। हां, एक बात जरूर है कि चुनाव में संघ के आगे बढ़कर सक्रिय होने के कारण भाजपा की स्थिति जरूर पहले से बेहतर दिख रही है, लेकिन संघ की इस भूमिका को शिवराज समर्थक कई पत्रकार बहुत नकारात्मक दृष्टि से देख रहे हैं।

उधर, प्रदेश भाजपा को केंद्र सरकार के फैसले तकलीफ में डाले हुए हैं, जिनके चलते भाजपा के चुनाव प्रचार अभियान से केंद्र की उपलब्धियां और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ज़िक्र बिल्कुल गायब लगता है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह यूं तो भाजपा के स्टार प्रचारक हैं, लेकिन भाजपा के प्रचार अभियान में केंद्र और मोदी नहीं दिखाई दे रहे हैं। भाजपा के गढ़ मालवा में अमित शाह के कार्यक्रम बहुत फीके रहे। उन्हें सपाक्स और करणी सेना का जबरदस्त विरोध झेलना पड़ा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर भी प्रदेश में कोई उत्साह नहीं, अपितु नोटबंदी, जीएसटी, एससी-एसटी बिल, पेट्रोल-डीज़ल के बढ़े हुए दाम जैसे मामलों के कारण काफी रोष है।

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कुल मिलाकर, आम लोग, कर्मचारियों व समाज विशेष की नाराजगी इस बार भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। इसके अलावा छोटे राजनीतिक दल सपाक्स पार्टी, जयस, सवर्ण समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, सीपीआई, सीपीएम, गोंगपा, बसपा, सपा केवल कांग्रेस का नहीं, अपितु भाजपा का गणित ज्यादा बिगाड़ेंगे। बिहार में जन्म लेने वाली पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने भी उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी है। इसके सुप्रीमो उपेंद्र कुशवाहा अभी केंद्र में मंत्री हैं। जाहिर है कि वह भी भाजपा का ही वोट कुतरेंगे। अगर भाजपा ऐसी परिस्थिति में अपना वोट प्रतिशत बरकरार रख पाई, तभी सत्ता में लौटेगी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि भाजपा के जीत में बड़े दावों में कई लोचे हैं।

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