हिन्दीभाषियों के हथियार से बंगाल में BJP को सबक सिखायेंगी ममता

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कोलकाता। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को एहसास हो गया है कि बंगाल में बसे प्रवासी हिन्दील भाषियों को साथ लेना बेहत जरूरी है। उन्होंने बंगाल के हिन्दी भाषी समाज को साधने की जुगत भिड़ाई है। शुक्रवारल को प्रवासी बिहारी समाज के कार्यक्रम में न सिर्फ वे शरीक हुईं, बल्कि हिन्दी भाषियों के लिए दो महत्वपूर्ण घोषणाएं भी कीं। पहली घोषणा में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के भीतर हिन्दी प्रकोष्ठ बनाने की बात कही तो दूसरी घोषणा में हिन्दी विश्वविद्यालय बंगाल में बनाने का की योजना बतायी। हिन्दी कालेज खोलने की अपनी उपलब्धि भी उन्होंने गिनाई। बिहार में लालू प्रसाद से अपने रिश्ते का रहस्य खोला तो बिहारी पकवान ठेकुआ और लिट्टी-चोखा की चर्चा की।

ममता का हिन्दी प्रेम अचानक नहीं उमड़ा है। इसके पहले वे हिन्दी अखबारों के पत्रकारों-संपादकों को सम्मानित भी कर चुकी हैं। मैट्रिक व इंटर के हिन्दी छात्रों को हिन्दी में प्रश्नपत्र देने की शुरुआत भी ममता ने ही की, जबकि यह मांग वर्षों से चली आ रही थी।

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सवाल उठता है कि ममता का हिन्दी भाषियों के प्रति प्रेम इतना परवान क्यों चढ़ा है। इसके बुनियादी कारण राजनीतिक हैं। बंगाल में अब तक शासन करने वाली तकरीबन सभी पार्टियां यह समझती आयी हैं कि हिन्दी भाषी भाजपा के ज्यादा करीब होते हैं। बंगाल में सेंधमारी की भाजपा ने जिस तरह कोशिश शुरू की है, उसकी काट के लिए ममता ने हिन्दी भाषी समाज को एकजुट करने की मुहिम छेड़ी है।

ठेकुआ और लिट्टी-चोखा जैसे ठेठ बिहारी व्यंजन की चर्चा और तारीफ जिस अंदाज में उन्होंने की, उससे बिहार के लोगों का भावनात्मक लगाव निश्चित तौर पर उनसे बढ़ेगा। लालू से रिश्ते की चर्चा का साफ संकेत है कि वे गैर भाजपा दलों से दिल मिले होने की बात कह रही थीं। वैसे भी बंगाल में बिहार से जाकर रह रहे दलित-पिछड़े लोगों की आबादी ज्यादा है। रोजी-रोजगार के लिए इनकी बड़ी आबादी बिहार में बसती है। उन्होंने हिन्दी प्रकोष्ठ का आग्रह तुरंत स्वीकार किया और बंगाल की राजनीति में दखल रखने वाले दिवंगत विधायक अनय गोोपाल सिन्हा के बेटे राजेश सिन्हा और बिहार से जाकर वहां दो पीढ़ियों से विधायकी करने वाले परिवार के सदस्य और मौजूदा तृणमूल विधायक अर्जुन सिंह को इसकी कमान भी सौंपने की घोषणा कर दी।

देखना यह है कि अब तक भाजपाई चरित्र के रूप में चिह्नित हिन्दी भाषी समाज अपने इरादे में बदलाव लाता है या नहीं। अगर ममता इसमें कामयाब हो जाती हैं तो भाजपा की राह थोड़ी मुश्किल जरूर होगी।

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वोटों के सामाजिक ध्रुवीकरण की कोशिश ममता पहले ही शुरू कर चुकी हैं। जिस जिंदादिली से वह मुसलिम समाज के आयोजनों में शामिल होती रही हैं, उसी अंदाज में ब्राह्मण समाज के आयोजनों में शिरकत करना उन्होंने शुरू कर दिया है। हिन्दीभाषी समाज को जोड़ने की उनकी कोशिश वोटों की उनकी रणनीति का ही हिस्सा है।

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