पुण्य तिथि पर विशेषः राम मनोहर लोहिया एक फ़कीर

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  • के. विक्रम राव

दौर अभी बाकी था, मकता अभी अधूरा रह गया। कहते कहते वह सो गया, तो सुनने वालों को सन्नाटे ने चौंका दिया। जाने  वाला था बड़ा बेखुद, लोगों को दीवाना बना गया। बंजारों की मस्ती लिए बिना कुटी का जोगी था, क्रांति की धूनी रमाकर ओझल हो गया। बिछोह का रंज दे गया। सठियाने के बाद ही जिस देश में नेताओं कि जवानी शुरू होती है, वहीं वह सत्तावन पर ही चला गया। शोषित कि व्यथा से सर्जित समाजवाद करुणामय होता है, ह्रदय से वह समाजवादी था। दलित के दर्द से उसका दिल छिल गया था। रिसते घाव सिये नहीं जा सकते, उसके जख्म अंत तक भर नहीं पाए थे। विलिंग्डन अस्पताल में बारह डॉक्टरों को अपने पास देखकर वह बोला, “इस देश में लाखों लोग एक भी डॉक्टर को नहीं देख पाते, यहाँ इतने सारे डॉक्टर सिर्फ एक को देख रहे हैं !” अन्याय से संघर्ष का वह गौरवपूर्ण हस्ताक्षर था। लोहिया को अंग्रेजों ने काफी तबाह किया, फिर भी वे अडिग रहे।

दूर और देर तक तलाशें, लेकिन राममनोहर लोहिया का जोड़ या सानी दिखता नहीं है। आजादी आते ही जब महान स्वातंत्र्यवीर अपनी कुर्बानियों की फसल काटने दौड़ चले, तो लोहिया विरोध का नया दर्शन रचने में लगे थे। बढ़ते प्याले से जो होंठ फेर ले वह निरा मंदबुद्धि होगा,  या फिर वीतरागी। लोहिया अनासक्ति के प्रति आसक्त रहे। जब विदेशी सत्ता से ठन रही थी, तभी संघर्ष को दिल दे बैठे थे। कभी फिर वापस नहीं माँगा, आजीवन अविवाहित रहे। यह सब अनायास ही हो गया। स्वतंत्रता आये दो वर्ष भी नहीं हुए थे  कि  किसी ने लोहिया को बताया कि उन्हें फिर कारावास भोगना पड़ेगा। वे अविश्वास से हँसे। सत्य और अहिंसा की कोख से पुनर्जनमें  भारत में भी अनाचार के विरोधियों को त्रास मिलेगा? उन्हें यकीन नहीं आया। मगर होनी कुछ और ही थी। पुश्तैनी अमात्यवर्ग राणाओं ने नेपाल के जनवादी आन्दोलन  का दमन किया, तो दिल्ली में नेपाली दूतावास के समक्ष प्रदर्शन करते लोहिया को भारतीय पुलिस ने कैद कर लिए। जंग का स्थगित सिलसिला फिर चला।

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अंग्रेजों और पुर्तगालियों से मोर्चा लेने वाला, ‘भारत छोडो’ आंदोलन का सेनानी नए हिंदुस्तान में भी मानवकृत -नरक (जेल) में कई बार यातना सहने पर लाचार कर दिया गया। शायद यह इसलिए हुआ कि “जब तक धरती पर तानाशाह रहेंगे, स्वतंत्रताप्रिय लोगों का माकूल स्थान सलाखों के पीछे ही होगा।” विंध्य प्रदेश और मणिपुर में प्रतिनिधि शासन बनाने के लिए, फिर दार्जिलिंग और असम में उन्होंने जेल यातनाएँ  झेली। बढे सिंचाई कर के विरोध में स्पेशल पावर्स एक्ट, जिसे गाँधीजी ने ‘अमानुषिक कानून’ कहा था, के अंतर्गत गिरफ्तार हुए तो लोहिया ने अपने मुक़दमे की जिरह खुद की। मानवमुक्ति के हेतु लड़े प्रह्लाद और सुकरात से साबरमती के संत तक सबका उल्लेख उन्होंने अपने बचाव में किया। जजों ने लोहिया को बरी कर दिया, गिरफ़्तारी के कानून को अवैध करार दिया और उत्तर प्रदेश सरकार पर 500 रुपये का जुर्माना किया। तब मुख्यमंत्री थे उन्हीं के पूर्व समाजवादी सहयोगी सम्पूर्णानन्द। फिर कुछ साल हुए, जनमन के रोष को जाहिर करने के नए अस्त्र ‘बंद’ का समर्थ करने के अपराध में उन्हें आगरा व पटना की जेलों में रखा गया।

शुष्क राजनीति में रहकर भी लोहिया मानव -सहज माधुर्य से परे नहीं रहे। एक बार पार्टी अधिवेशन के वैमनस्य भरे वातावरण को हलका करने के लिए छोटे से भावुक भाषण में उन्होंने कहा, “अशोक (मेहता) और मैं कई बार काफी रात गुजरे बातें किया करते थे, और हमारा  विषय  सिर्फ राजनीति ही नहीं हुआ करता था। “दोनों अविवाहित थे। मंत्रियों  के लिए परिवार नियोजन करने के पक्ष में लोहिया इसलिए थे कि इससे  भाई-भतीजावाद तो कम होगा।

लोहिया के जीवन का एक अनुपम पक्ष भी याद रहेगा। विरोधाभास वाला ये प्रखर समाजवादी चिंतक एक मारवाड़ी परिवार में जन्मा था। हालाँकि पिता हीरालाल जी गाँधीवादी थे जो लू लगते गर्मी में पैदल ही कोलकाता से दिल्ली युद्ध-विरोधी सत्याग्रह में भाग लेने आये। जेल में समाजवाद पर बहस के दौरान अपने हम-कैदियों से हीरालाल जी बोले, “तुम सब होंगे सोशलिस्ट, मैं तो सोशलिस्ट का बाप हूँ।” छः विदेशी भाषाओँ से अवगत होकर तथा अँग्रेजी के सही उच्चारण और सुन्दर शैली पर जोर देने वाले राममनोहर लोहिया को खीझ थी कि स्वतंत्र भारत में अब तक अंग्रेजी के सार्वजनिक उपयोगों को कानून ने जुर्म क्यों नहीं करार दिया? राष्ट्रपति के निर्वाचन में कांग्रेसी उम्मीदवार डॉ. जाकिर हुसैन का लोहिया ने विरोध किया था, क्योंकि कांग्रेस ने “धर्म निरपेक्ष राज्य में धर्म के नाम पर वोट माँगे थे।”

एक बार वे लखनऊ से मुंबई आये (अप्रैल 1954 में) तो अवध के स्वप्निल चमन और अरब सागर तटीय मायानगरी कि तुलना चल पड़ी। “मैं तो मुंबई कि रवानगी का अंदाज यहाँ के लोगों की तेज चाल से लगाता हूँ ” कहा लोहिया ने। फिर बोले :”मगर उस लखनऊ वाले सुरूर का आलम कहाँ,  जहाँ  वक्त हमारा इंतजार करता हो ?” मुक्तहृदय मुंबई वासियों ने भी लोहिया जी के प्रति मान व प्यार दर्शाने में कसर नहीं छोड़ी। उनके 56वें जन्म दिवस पर लाख रूपये भेंट किये और सार्वजनिक अभिनन्दन किया।

यही मुंबई बारह दिन तक लोहिया की अस्वस्थता की सूचना पाकर विक्षिप्त, बेचैन रही। 12 अक्टूबर 1967 की अपराह्न दिल्ली ने फिर एक शवयात्रा देखी। संसद में कमी और जनजीवन में रिक्तता आ गयी। समाजवादी ने श्री खो दी, मगर हम अखबारवालों का दफ्तर वीरान हो गया। अब कलम भी मायूस रहा करती है।

(‘‘धर्मयुग‘‘ से 23 अक्टूबर 1967)

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