बिहार में लोक सभा चुनाव को लेकर बिछने लगी जातीय विसात

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भारत में बिहार का इतिहास विविध में से एक है। प्राचीन बिहार, जो कि मगध के रूप में जाना जाता था, 1000 वर्षो तक शिक्षा, संस्कृति, शक्ति और सत्ता का केंद्र रहा। भारत के पहले साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य के साथ ही दुनिया की सबसे बड़ी शांतिवादी धर्म बौद्ध धर्म भी बिहार में हुआ।  मौर्य और गुप्त शासनकाल में  बिहार भारतीय सभ्यता, राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक केंद्र था। बिहार में ही कई धार्मिक महाकाव्य लिखे गए, जिनमे “अभिज्ञान शाकुन्तलम्” प्रमुख है।

दरअसल बिहार दुनिया के उन पहले गणराज्यों में से एक है, जिसके अस्तित्व का उल्लेख लिच्छवी, महावीर (599 ई.पू.) के जन्म से पहले से मिलता है। बिहार का गुप्त वंश  भारतीय संस्कृति और शिक्षा के लिए जाना जाता था।  बिहार ने 1857-58  के युद्ध में भी निर्णायक भूमिका निभाई थी।

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आज बिहार केन्द्रीय राजनीति (दिल्ली) का गलियारा बन चुका है, क्योंकि ऐसा माना जा रहा है कि बिहार लोकसभा चुनाव के परिणाम की बिसात पर ही आगामी विधानसभा चुनाव में नए समीकरण  दिखाई देंगे और चुनावी रणनीतियों को प्रभावित भी करेंगे।

प्रोफेसर रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक “कास्ट इन इण्डियन पॉलिटिक्स” में भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका विस्तृत विश्लेषण किया है। उनका मत है कि अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या भारत में जाति प्रथा खत्म हो रही है ?

इस प्रश्न के पीछे यह धारणा है कि मानो जाति और राजनीति परस्पर विरोधी संस्थाएं हैं। ज्यादा सही सवाल यह होगा कि जाति-प्रथा पर राजनीति का क्या प्रभाव पड रहा है और जात-पात वाले समाज में राजनीति क्या रूप ले रही है? जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे न तो राजनीति के प्रकृत स्वरूप को ठीक से समझ पाए हैं, न जाति के स्वरूप को।

बिहार में  किसी भी राजनीतिक दल में वह नैतिक बल नहीं दिखता, जिससे यह स्पष्ट हो कि वह अमुक जाति के वास्ते, उसके अधिकार के लिए डटा है। इस नजर-चोरी की वजह यह से ही वे सभी जातियों को समान प्रतिनिधित्व देने की दलील पेश करते हैं, ताकि समाज का कोई भी वर्ग उपेक्षित न रहे।

भारतीय राजनीति में जातीय राजनीति उतना ही पुरानी है, जितना कि हमारी आजादी। यह अलग बात है कि उस समय समाज के सभी वर्गों में समानता के लिए दलित और पिछड़े को राजनीति में भागीदारी देने की बात हुई। बताते चलें कि आजादी मिलते ही 1952 में जब अंतरिम सरकार के लिए चुनाव की बात हुई तो कांग्रेस पार्टी ने सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व के नाम पर दलित, पिछड़ा और अत्यंत पिछड़ी जातियों को टिकट दिया। इसी क्रम में दारोगा राय, प्रभावती गुप्ता और जगदेव प्रसाद जैसे पिछड़े वर्ग के नेता भारतीय राजनीति का हिस्सा बने। उसके बाद साठ के दशक में जेपी के नेतृत्व में समाजवादियों ने अगड़ा-पिछड़ा के नाम पर ही चुनाव लड़ा और संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। दूसरी तरफ उसी समय समाज का एक वर्ग हाशिए पर था, इसलिए सोशलिस्ट पार्टी ने नारा दिया- संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ।’

राजनीति में जाति के आधार पर बढ़ता प्रतिनिधित्व का ही नतीजा था कि 1980 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने नारा दिया कि ‘जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।’ इसके बाद तो राजनीति में जैसे जातिवाद को पंख ही लग गए। मंडल कमीशन के नाम से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने का बवंडर भारतीय राजनीति का न भूलने वाला कालखंड है। इस मंडल कमीशन के चलते ही 7 नवंबर, 1990 को वीपी सिंह की सरकार गिर गई। तबतक बिहार में लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे पिछड़ों के नेता अपना स्थान बना चुके थे। जाते-जाते वीपी सिंह बिहार में लालू प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री बना गए। उसके बाद तो बिहार में जातिगत आधार पर ही चुनाव लड़ा जाने लगा। लालू यादव के समय एमवाई (मु्स्लिम-यादव) का समीकरण खूब चला। इन दिनों लालू यादव ने ‘भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला) साफ करो’ का भी नारा दिया था। इस जातिगत समीकरण ने बिहार की राजनीतिक और सामाजिक संतुलन को ही बदल दिया।

बिहार में चुनाव की आहट के बाद सभी राजनीतिक दल फिर से जातीय समीकरण को साधने में जुट गए हैं। सूबे में चुनाव पहले से ही जातीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं। हालांकि साल 2005 और 2010 व 2015 के चुनावों के दौरान लगा था कि बिहार के लोग जातीय भावना से अब ऊपर उठ गए हैं। उन्‍होंने इसी में बदलाव के तहत नीतीश कुमार के हाथों में सत्‍ता सौंपी थी। हालांकि उस समय नीतीश की पार्टी जेडीयू एनडीए का अहम हिस्‍सा थी, परंतु इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि इन चुनावों में भी वोटों को अपने-अपने तरीके से जाति के नाम पर साधा गया। साल 2019 आते-आते सभी दलों का जोर फिर से जातीय समीकरण बिठाने पर है। इसी के तहत भाजपा ने लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान और रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा को साथ लेकर इस वोट बैंक को पक्‍का करने की पूरी रणनीति बनाई है। दूसरी तरफ यह जातीय वोट ही है जिसने राजद को मांझी के साथ आने के लिए मजबूर किया।

सदियों से बिहार की राजनीति में जाति का वर्चस्व रहा और गरीब रोटी कपड़ा मकान के लिए तरसते रहे। नौकरी के लिए, माँ बाप का पेट भरने और जवान बहन की शादी में पैसे के जुगाड़ के लिए राज्य से पलायन होता रहा।

  • संतोष राज पांडेय 

 

 

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