सरयू राय के बारे में जितना मैंने जाना-समझा, उसे आप भी जानें

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सरयू राय, झारखंड के पूर्व मंत्री, इस बार विधानसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार और मुख्यमंत्री रघुवर दास को निर्दलीय प्रत्याशी बन कर हराने वाले, काफी चर्चा में रहे हैं। क्या है उनकी खासियत और कौन-सी है उनमें खूबी कि वे ऐसा करने में कामयाब रहे, आइए जानते हैं।
सरयू राय, झारखंड के पूर्व मंत्री, इस बार विधानसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार और मुख्यमंत्री रघुवर दास को निर्दलीय प्रत्याशी बन कर हराने वाले, काफी चर्चा में रहे हैं। क्या है उनकी खासियत और कौन-सी है उनमें खूबी कि वे ऐसा करने में कामयाब रहे, आइए जानते हैं।

सरयू राय, झारखंड के पूर्व मंत्री, इस बार विधानसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार और मुख्यमंत्री रघुवर दास को निर्दलीय प्रत्याशी बन कर हराने वाले, काफी चर्चा में रहे हैं। क्या है उनकी खासियत और कौन-सी है उनमें खूबी कि वे ऐसा करने में कामयाब रहे, आइए जानते हैं।

  • ओमप्रकाश अश्क

कोलकाता में बैठ कर कभी झारखंड-बिहार के राजनेताओं को बंगाल के जनप्रतिनिधियों से सादगी की सीख लेने की सलाह दिया करता था। मसलन खबरें बनवाया करता था। माध्यम होता था प्रभात खबर। बंगाल के सीएम, मंत्री और विधायक कैसे बिना तामझाम के रहते और सड़कों पर निकलते हैं, यह बताया करता था। इस बार हम चर्चा करेंगे झारखंड के एक ऐसे ही नेता सरयू राय की। इसलिए कि अब तक उन्हें ताम-झाम से परे बेहद सादगीपूर्ण अंदाज में देखा है। वे मंत्री भी रहे और मुख्यमंत्री रधुवर दास को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में हराने का रिकार्ड भी बनाया। लेकिन स्वभाव से विनम्र और अपनी अस्मिता के प्रति बेहद सजग रहे।

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झारखंड में लगातार रहते तकरीबन डेढ़ दशक हो गए। पहले 1990 में आया था और दूसरी बार 2006 में। लेकिन यहां के राजनीतिज्ञों का जो ताम-झाम देखा, उससे लगा कि कोलकाता में रह कर नेताओं की सादगी का की जो कवायद की थी, वे सारी बेअसर रही। सारी सीख बेअसर देखी। सायरन की चिल्ल-पों (हालांकि कोर्ट के आदेश पर अब इस पर बंदिश है), सड़क खाली कराते पुलिस वालों का हुजूम और एक मंत्री के आगे-पीछे महंगी कारों का कारवां। ऐसा  अगर बाहरी तौर पर जनप्रतिनिधियों की चकाचौंध है तो उनकी आंतरिक स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

बिरला घराने के बुजुर्गों की आखिरी पीढ़ी के स्तंभ बसंत कुमार बिरला (अब स्व.) के साथ लेखक ओमप्रकाश अश्क
बिरला घराने के बुजुर्गों की आखिरी पीढ़ी के स्तंभ बसंत कुमार बिरला (अब स्व.) के साथ लेखक ओमप्रकाश अश्क

सरयू राय ने मेरी धारणा अब तक के जीवन में दूसरी बार ध्वस्त की है। पहली बार बसंत कुमार बिरला से मुलाकात के दौना ऐसा हुआ था। उनसे मिलने उनके कोलकाता स्थित आवास पर गया था। जाने के पहले बिरला के बारे में बचपन से सुनते आए मिथक के कारण अतिशय उत्सुकता थी। कैसे होंगे बिरला, कैसे रहते होंगे, कैसा घर होगा, घर के अंदर का माहौल कैसा होगा, जैसी तमाम जिज्ञासाएं मन में थीं। इसलिए कि किसी को धनाढ्य बताने के लिए बचपन में लोगों को यह कहते सुनता था कि बिरला-टाटा हो गए हैं का? पर, मिला तो पाया कि सामान्य जन की तरह ही उनका भी जीवन है। य केह तकरीबन 20 साल पहले की बात है। अब तो वे रहे भी नहीं।

सरयू राय
सरयू राय

दूसरी बार मेरी धारणा चार-पांच साल पहले ध्वस्त हुई, जब झारखंड के खाद्य आपूर्ति मामलों के मंत्री सरयू राय के घर उनसे मिलने गया। साधारण फ्लैट। घर में सामान्य फर्नीचर। फ्लैट भी हजार-बारह सौ फीट से बड़ा नहीं। न कोई संतरी-सिपाही और न कोई मंत्री का रुतबा दिखाता नेम प्लेट। अपार्टमेंट के दरबान से पूछा तो उसने भी सामान्य आगंतुक की तरह उनका फ्लैट नंबर बता दिया।

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दरवाजे पर पहुंच कर कालबेल बजायी, दरवाजा खुला और सरयू राय। अंदर जाकर उनके साथ बैठ गए। काफी देर तक बातचीत हुई। आम घरों की तरह मिठाई-बिस्किट-चाय। कार्यकर्ता के नाम पर दलाली और चाटुकारिता वाले जीवों का दर्शन भी नहीं हुआ। मुझे लगा कि अपने घर में बैठा हूं। तड़क-भड़क होती तो शायद अपनापन में संकोच होता भी।

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इस बार चुनाव जीतने के बाद वे दिल्ली में आयोजित पूर्वांचली समाज के एक कार्यक्रम में शरीक होने गये। मुझे भी जाना था, लेकिन अंतिम समय में कार्यक्रम टल गया। दिल्ली से एक मित्र ने फोन किया कि राय जी आये हैं कार्यक्रम में। तब मुझे पता भी नहीं था कि उन्हें भी जाना है। पता होता तो मैं भी लटक जाता। बहरहाल, मैंने साथी को कहा कि अगर खाली दिखें तो बात करा दीजिएगा। पता चला कि उस कार्यक्रम में वही हीरो हैं। मनीष सिसोदिया भी वहां गये थे, लेकिन सबके आकर्षण का केंद्र सरयू राय ही बने थे। मेरे मित्र ने किसी तरह उनसे कहा कि अश्क जी लाइन पर हैं, आप से बात करना चाहते हैं। जैसा हम अक्सर भोजपुरी में बात करते हैं, उसी अंदाज में उनसे बात हुई। मेरे मित्र ने बात तो नहीं सुनी, पर उनके हाव-भाव को देख कर बताया कि वे तो आपके काफी करीब लगते हैं। ऐसा कहने के पीछे उनका तर्क था कि तमाम लोगों से घिरे होने के बावजूद उन्होंने अपनी बोली में बात की।

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