मीडिया में बेरोजगारी का तेजी से बढ़ रहा है संकट

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  • उमेश चतुर्वेदी

दिल्ली की हिंदी पत्रकारिता में एक जबर्दस्त चलन है। जिन्हें रोजगार की तलाश होती है, वे रोजगार दे सकने वाले लोगों के फोन पर लगातार संपर्क की कोशिश करते रहते हैं और रोजगार देने की हैसियत वाले ऐसे कॉल को रिसीव करने की बजाय लगातार टालते रहते हैं। दिलचस्प यह है कि इस प्रक्रिया में वे लोग भी शामिल हो जाते हैं, जो बेरोजगारी के दौर में ऐसे फोन न उठने से परेशान रहते थे। हाल ही में एक सज्जन का ऐसा ही अनुभव रहा।

अपनी हैसियत नौकरी देने वाली रहे या न रहे, फोन उठाने में मुझे हिचक नहीं होती, लेकिन हाल के दिनों में हिचक होने लगी है। आप सोचेंगे कि क्यों? दरअसल आजकल आने वाले फोन से डर लगा रहता है कि कहीं सामने वाला अपनी नौकरी छूटने की सूचना न दे दे।

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हाल ही में ऐसा ही अनुभव हुआ। मेरे एक अजीज हैं। हफ्ते में एक-दो दिन फोन पर बात हो ही जाती है। एक बड़े अखबार को छोड़कर दूसरे अखबार में हाल ही में गए थे, लेकिन वहां बमुश्किल उनकी नौकरी आठ महीने ही चल पाई।

पिछले दिनों उनका फोन आया और अपनी नौकरी जाने की उन्होंने सूचना दी तो अंदर तक हिल गया। परिवारवाले हैं, एमबीए तक की पढ़ाई करके पत्रकारिता में खास रुचि के चलते उस दौर में पत्रकारिता करने आए, जब एमबीए पास की बाजार में ठीकठाक मांग थी।

पत्रकारिता की लंतरानियां नहीं सीख पाए। लिखने, खबर खोजने और रिपोर्ट करने को ही पत्रकारिता मानते रहे। अल्प आय में जिंदगी गुजारते रहे। पोस्टिंग तो ऐसी रही कि चाहते तो माल बना सकते थे, लेकिन फितरत नहीं तो कर कैसे पाते। जब पिछली बार थोड़े से ज्यादा वेतन के चक्कर में बड़े अखबार को छोड़ दूसरे बड़े अखबार में जा रहे थे तो मैंने रोका था, लेकिन उत्साह में वे टाल गए थे।

बेरोजगारी के दौर में ऐसी नौकरियां या बेहतर ऑफर मिलते हैं तो लोग संस्थानों के चरित्र को भूल कर कुछ ज्यादा पैसे के चक्कर में नई जगह चले जाते हैं, फिर पछताते हैं। मेरे कई परिचित ऐसे हालात में सुझाव मांगते थे तो मैं उन्हें बेहतर संस्थान में ही रहने को प्रेरित करता था, लेकिन लोग बुरा मान जाते थे। तो अब सुझाव देता ही नहीं। एक मोहतरमा/ सज्जन को भी लंबी बेरोजगारी के बाद दो-दो नौकरियों का ऑफर मिला। दोनों ने सुझाव मांगा। मैंने खराब चरित्र वाले संस्थान का प्रस्ताव ना स्वीकार करने का सुझाव दिया तो दोनों ही चिढ़ गए, क्योंकि दोनों को खराब चरित्र वाले संस्थान अच्छे पैसे दे रहे थे।
हाल ही में एक बहुत ही जरूरतमंद लड़की को उसके संस्थान ने सिर्फ इसलिए निकाल दिया कि उसने अपना वेतन बढ़ाने की मांग कर दी थी। उसका फोन अब तक मुझे कंपाता रहता है।

इसके बाद हमारे इस अजीज का फोन। पत्रकारिता के लोग देश-दुनिया की घटनाओं पर क्रांतियां करते रहते हैं, लेकिन अपने घर का चूल्हा नहीं देखते। संसद में राहुल के लिए मोदी नहीं खड़े हुए, ऐसी चिंताएं हमें परेशान करती हैं, लेकिन अपनी परेशानियां नजर नहीं आतीं।

मेरे मित्र की परेशानी ने मुझे गहरी उदासी से भर दिया है। सवाल यह है कि क्या ऐसी चिंताएं हमारी सामूहिक चेतना को कभी परेशान करेंगीं?

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