बब्बन सिंह,
वरिष्ठ पत्रकार
पूर्वोत्तर की राजनीति केंद्र के रहमो-करम से जुड़ी है। इसलिए वहां की जनता व रहनुमा हमेशा व्यवहारवादी राजनीति पसंद करते हैं और प्रायः केंद्र के साथ होते है। दो-तीन सालों के राजनैतिक बदलाव इसी बात को पुष्ट करते हैं। हालांकि अबतक त्रिपुरा थोड़े अलग गति से चल रहा था लेकिन उसने भी इसी रास्ते का अनुसरण शुरू कर दिया है। वैसे भी माकपा बेहद मामूली वोट फीसद (आधे फीसद) से हारी है। दशकों से सत्ता में रहने के कारण उत्पन्न आत्मविश्वास और शैथिल्य के कारण ऐसा हुआ है। अगर भाजपा की चुनावी मशीनरी को वहां के सियासतदानों ने समझा होता तो आज वे सत्ता से बाहर नहीं होते। फिर भी हमारी व्यक्तिगत मान्यता है कि सत्ता में किसी भी पार्टी को 5 साल से ज्यादा नहीं रहने देना चाहिए। इसलिए इस परिणाम से निराश होने की जरूरत नहीं क्योंकि हिंदी भाषी क्षेत्रों यानी मध्य प्रदेश व राजस्थान के चुनाव परिणाम त्रिपुरा की तरह चौकाने वाले हो सकते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार
पूर्वोत्तर की राजनीति केंद्र के रहमो-करम से जुड़ी है। इसलिए वहां की जनता व रहनुमा हमेशा व्यवहारवादी राजनीति पसंद करते हैं और प्रायः केंद्र के साथ होते है। दो-तीन सालों के राजनैतिक बदलाव इसी बात को पुष्ट करते हैं। हालांकि अबतक त्रिपुरा थोड़े अलग गति से चल रहा था लेकिन उसने भी इसी रास्ते का अनुसरण शुरू कर दिया है। वैसे भी माकपा बेहद मामूली वोट फीसद (आधे फीसद) से हारी है। दशकों से सत्ता में रहने के कारण उत्पन्न आत्मविश्वास और शैथिल्य के कारण ऐसा हुआ है। अगर भाजपा की चुनावी मशीनरी को वहां के सियासतदानों ने समझा होता तो आज वे सत्ता से बाहर नहीं होते। फिर भी हमारी व्यक्तिगत मान्यता है कि सत्ता में किसी भी पार्टी को 5 साल से ज्यादा नहीं रहने देना चाहिए। इसलिए इस परिणाम से निराश होने की जरूरत नहीं क्योंकि हिंदी भाषी क्षेत्रों यानी मध्य प्रदेश व राजस्थान के चुनाव परिणाम त्रिपुरा की तरह चौकाने वाले हो सकते हैं।
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