नौकरशाही के दलदल में फंस गया है नीतीश का परिवर्तन रथ

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बिहार में दिमागी बुखार का कहर
बिहार में दिमागी बुखार का कहर
  • प्रवीण बागी

निःसंदेह नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर बिहार की शक्ल-सूरत बदलने की दिशा में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। वे एक मुक्तिदाता के रुप मे उभरे थे। अपराधी और जातीय गिरोहों के चंगुल में फंसे बिहार में विकास की भूख जगाई। उसे प्रगति के पथ पर  अग्रसर किया। बिहार को उसकी बदनाम छवि से मुक्ति दिलाई। कानून की सत्ता स्थापित की। लेकिन अब ये पुरानी बातें हो चुकी हैं।

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उनका परिवर्तन रथ नौकरशाही के दलदल, भ्रष्टाचार और अपराध के शिकंजे में फंस गया है। पहले मुजफ्फरपुर रिमांड होम कांड ने उनकी श्वेत-धवल छवि को गंभीर रुप से धूमिल किया और अब उसी मुजफ्फरपुर में गरीब मासूमों की कीड़े-मकोड़ों की तरह हो रही मौत ने उनके विकास-पुरुष की इमेज को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है। इसकी भरपाई संभव नही दिखती। प्रयत्नपूर्वक जो कुछ उन्होंने अर्जित किया था, उसे अपने ही हाथों गंवा दिया।

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उनके दावों और विकास मॉडल की धज्जियां उड़ रही हैं। जिधर देखिए, एक अजीब-सी अराजकता नजर आ रही है। एक दशक बाद भी राज्य में एक आदर्श अस्पताल खड़ा नहीं किया जा सका। अस्पतालों और ICU के बड़े-बड़े भवन बन गए, लेकिन वहां न डॉक्टर हैं, न सहायक स्टाफ। राज्य में डॉक्टरों के 70 प्रतिशत पद रिक्त हैं। दवाएं नहीं हैं। मुजफ्फरपुर के सरकारी मेडिकल कालेज अस्पताल की जो तस्वीरें और खबरें सामने आई हैं, वे किसी भी सरकार को शर्मसार करने के लिए काफी हैं, बशर्ते उसमें शर्म बची हो।

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सिर्फ मुजफ्फरपुर में 23 जून तक 168 मासूम काल के गाल में समा चुके हैं। यह आंकड़ा अस्पताल में मरनेवालों का है। अस्पताल के बाहर मरनेवालों की संख्या जोड़ दी जाये तो यह संख्या 300 तक पहुंच सकती है। अब तो बिहार के अन्य जिलों में भी मासूम मर रहे हैं। मरनेवाले बच्चे अत्यंत गरीब परिवार के हैं। दलित और अत्यंत पिछड़े वर्ग से हैं। मेडिकल साइंस की जटिलताओं को छोड़ दें तो मौत का मुख्य कारण कुपोषण है।

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अपने बच्चों को खो चुके अभिभावक इतने गरीब हैं कि उन्हें दो जून का खाना भी नहीं दे पाते। इससे सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं की हकीकत का भी खुलासा हो जाता है।पता चला कि उन क्षेत्रों में आंगनबाड़ी योजना 6 महीने से बंद है। राशन दुकानों से गरीबों को मिलनेवाला अनाज भी उन्हें मिला होता तो बच्चों की जान नहीं जाती। मरनेवाले गरीब थे, इसलिए दिल्ली से लेकर मुजफ्फरपुर तक सरकार और शासन सोया रहा। गरीबों की चिंता किसे है? उनका तो सिर्फ वोट चाहिए?

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जरा कल्पना कीजिये, मरनेवाले मासूम पैसेवाले और ताकतवर जातियों के होते तो क्या सरकार ऐसे ही सोयी रहती? अबतक तो हाहाकार मच गया होता। वह तो जब न्यूज चैनलों ने मुजफ्फरपुर से लाइव दिखाना शुरु किया और मंत्रियों से सवाल पूछे जाने लगे तब मद में डूबी सरकार की तंद्रा टूटी। दिल्ली से मंत्री आये। चौतरफा आलोचना झेल रहे CM भी 10 दिन बाद मुजफ्फरपुर पहुंचे। जाहिर है सरकार इसको लेकर कतई गंभीर नहीं थी।

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दरअसल नीतीश सरकार आत्ममुग्धता की शिकार है। वह वही देखती, सुनती और समझती है, जो अधिकारी उसे दिखाते-बताते हैं। अधिकारियों ने एक दशक में जिस स्वप्नलोक की रचना की है, उसकी परतें उतरनी शुरू हो गई हैं। मासूम दलित बच्चों की मौत की कालिख ने पूरी सरकार और शासन का मुंह काला कर दिया है। यह सरकार जनता का विश्वास और अपनी साख खो चुकी है।

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