कोरोना के रंग-ढंग से और भी परेशानियां कर रहीं इंतजार

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श्याम किशोर चौबे, वरिष्ठ पत्रकार
श्याम किशोर चौबे, वरिष्ठ पत्रकार
  • श्याम किशोर चौबे

कोरोना के रंग-ढंग से और भी परेशानियां इंतजार कर रही हैं। यह उद्योग-व्यापार जगत की प्रतिनिधित्व करने वाली एजेंसियों के आकलन से उजागर है। दिन पर दिन बीतने के साथ कोरोना उफान के बीच कन्फेडरेशन आफ आल इंडिया ट्रेडर्स ने बहुत ही चिंताजनक रिपोर्ट दी है। उसका सर्वे कहता है कि कोरोना की शांति या इसके संग जीने की स्थिति बनने के बाद देश के 20 प्रतिशत व्यापारी और इन पर आश्रित व्यवसायी दम तोड़ देंगे। यानी उनका बिजनेस चौपट हो जाएगा। उसका आकलन है कि कोरोना के कारण भारत में व्यापार को साढ़े पांच लाख करोड़ का नुकसान हुआ है।

इसके साथ ही दो और आंकड़े गौर करने लायक हैं। अपने देश में मैन्युफैक्चरिंग, उद्योग, ट्रेड और ट्रांसपोर्ट का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 54 प्रतिशत योगदान है, जबकि रिटेल बिजनेस की जीडीपी में हिस्सेदारी 22 प्रतिशत है। खुदरा व्यापार के सिर पर सवार खतरा खासकर झारखंड और इसके जैसे पिछड़े और मजदूर उत्पादक राज्यों बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि के लिए कुछ अधिक ही चिंताजनक है। इन राज्यों का हाल यह है कि प्रवासी कामगारों को लेकर फिलहाल ये दुबले हुए जा रहे हैं और जब लाक डाडन खुलेगा, तब बेरोजगार हो चुका रिटेल व्यवसाय हायतौबा मचाने लगेगा। नोटबंदी और जीएसटी के बाद एक तो खुदरा व्यापार की खपत में ऐसे ही गिरावट आई थी, अब कोरोना ने उनको भारी चपत लगा दी है। यदि वे किसी प्रकार खुद को मैनेज भी करते हैं तो उनके सामने सबसे बड़ा संकट सोशल डिस्टेंसिंग बनाये रखना होगा। निकट भविष्य में कोरोना के पारगमन की संभावना नजर नहीं आ रही, जबकि स्थितियां सामान्य की ओर बढ़ने पर भी कोरोना की मर्यादाओं का अनुपालन तो करना ही पड़ेगा।

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कहने की बात नहीं कि रिटेल सेक्टर देश में स्किल्ड और अनस्किल्ड रोजगार का सबसे बड़ा साधन है, लेकिन वह खुद ही जबरदस्त आर्थिक हिचकोले खा रहा है। यहां तक कि ब्रांडेड रिटेल व्यवसाय के समक्ष भी विपरीत परिस्थिति उत्पन्न हो गई है। 2012-13 के बाद इस सेक्टर में फ्रेंचाइजी का ट्रेंड इस कदर विकसित और पुष्पित-पल्लवित हुआ कि छोटे-छोटे शहरों में भी ब्रांडेड रिटेल शोरूम की लाइन लग गई। ये शो रूम कर्ज लेकर किराये के भवनों में स्थापित किये गये हैं। एक तो ये लगभग डेढ़ महीने से अधिक काल की एकमुश्त बंदी झेल रहे हैं, दूसरे जब खुलेंगे, तब कितने ग्राहकों को आकर्षित कर पायेंगे, यह सोचने की बात है। अभी का नुकसान और भविष्य में मांग की कमी इनके लिए कैसा दृश्य बनाएगी, यह समझा जा सकता है। अलबत्ता ग्रासरी माल कुछ हद तक राहत जरूर महसूस करेंगे। चार-छह हजार की पैंट पर राशन-पानी की जरूरत जरूर भारी पड़ेगी। यही स्थिति हाल के वर्षों में विकसित रेस्टोरेंट कल्चर के सामने भी पेश आने वाली है। कोरोना ने खपत के निचले पिरामिडों को न केवल प्रभावित किया है, बल्कि बुरी तरह डरा भी दिया है। ऐसी स्थिति में जो अपने व्यवसाय की रिस्ट्रक्चरिंग करेगा, वही जीवित रहेगा।

वक्ती तौर पर प्रवासी मजदूर ही सबसे बड़ी समस्या हैं। जैसा कि झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा है, ये मजदूर जिस मानसिक संत्रास से गुजर चुके हैं और उनकी आर्थिक कड़ियां टूट चुकी हैं, उन्हें जोड़ना शासन-प्रशासन और समाज के समक्ष बड़ी चुनौती है। अपने-अपने देस लौट चुके ये मजदूर कतई इस मानसिकता में नहीं हैं कि वे जल्द ही अपने पुराने कार्य-ठिकाने पर जा सकें। उनके लिए राज्य सरकारें उनके गांव-गिरांव में ही कोई व्यवस्था करती हैं तो निश्चय ही इसमें केंद्र सरकार का सहयोग चाहिए, जिसकी अभी कोई घोषणा नहीं की गई है। ये कामगार अपने कार्य स्थल पर रोजाना कम से कम छह-आठ सौ रुपये कमाते थे, जबकि झारखंड जैसे राज्य में मनरेगा के तहत उनको दो सौ रुपये भी नसीब नहीं हो सकेंगे। हैरानी की बात है कि जिस मनरेगा के तहत हरियाणा, गोवा, केरल आदि राज्यों में रोजाना 350 रुपये मजदूरी तय की गई है, उसी योजना पर झारखंड में 200 रुपये भी निर्धारित नहीं हैं। हिमाचल में तो शिड्यूल एरिया और नन शिड्यूल एरिया के लिए अलग-अलग दरें हैं। आधा से अधिक झारखंड शिड्यूल एरिया में आता है, लेकिन इस पर अब तलक दिल्ली ने गौर करने की जरूरत नहीं समझी। निश्चय ही ये प्रवासी कामगार अपने-अपने क्षेत्र में सामाजिक-आर्थिक असंतुलन के शिकार बनेंगे। अकेले झारखंड के प्रवासी मजदूरों की संख्या 11 लाख के आसपास बतायी जाती है। यदि ये सभी लौट आए तो शासन-प्रशासन उनके रोजी-रोजगार की कितनी व्यवस्था कर पायेगा, यह एक बड़ा प्रश्न है। राज्य सरकार ने हालांकि इसकी जवाबदेही लेने से पीछे नहीं हटने की बात कही है और मुख्यमंत्री ने हाल ही में इसी लिहाज से तीन ग्रामीण योजनाओं की घोषणा कर रखी है। हेमंत सोरेन ने ऐसी शहरी समस्याओं के लिए भी कार्य योजना तैयार करने की आश्वस्ति दी है। सवाल, इसके लिए धन का है, क्योंकि बकौल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन झारखंड का 95 प्रतिशत सरकारी अर्थ तंत्र केंद्र पर निर्भर करता है। वे यह भी कहकर सारी स्थिति स्पष्ट कर देते हैं कि जब केंद्र सरकार ने देश का जिम्मा लिया है तो उसको राज्यों पर ध्यान देना ही पड़ेगा। खासकर पिछड़े राज्यों के लिए तो विशेष कार्य योजना बनायी जानी चाहिए, क्योंकि झारखंड जैसे राज्यों की हालत रोज कुआं खोदो, रोज पानी पीयो वाली है।

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एक अधिकारी ने जोर देते हुए कहा कि कोल इंडिया जैसी पब्लिक सेक्टर इकाई पर राज्य सरकार का लगभग 30 हजार करोड़ रुपये बकाया है। यही वह सही मौका है, जब ऐसी इकाइयां बकाया अदा कर दें तो राज्य राहत की सांस ले। संतोष की बात यही है कि हेमंत सोरेन ने एक बहुत ही अच्छी बात कही है कि कोरोना संक्रमण ने परेशानियां जरूर पैदा किया है लेकिन इसने नया अवसर भी दिया है। बड़े लोगों पर बहुत चर्चा हुई और उनके लिए खूब इवेंट मैनेजमेंट हुए, अब समय आ गया है, जब मजदूरों पर सोचा जाये, इंप्लायमेंट जेनरेशन के नये क्षेत्र तलाशे जाएं। हम ऐसा करेंगे और नया झारखंड बनाएंगे। सच है,  कप्तान हौसलामंद हो तो सैनिक जान पर खेलकर भी जंग जीत लेते हैं।

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