कोरोना की पहुंच पेट के बाहर तक ही नहीं रही, पैठ अंदर तक हो गई है

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कोरोना की पहुंच पेट के बाहर तक ही नहीं रही, पैठ अंदर तक हो गई है। कोरोना साथ लिए आ रहे हैं शिशु। ऐसे में सहज सवाल- कौन है कोरोना से सुरक्षित? पढ़िए, कोरोना डायरी की इक्कीसवीं किस्त वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव की कलम से।
कोरोना की पहुंच पेट के बाहर तक ही नहीं रही, पैठ अंदर तक हो गई है। कोरोना साथ लिए आ रहे हैं शिशु। ऐसे में सहज सवाल- कौन है कोरोना से सुरक्षित? पढ़िए, कोरोना डायरी की इक्कीसवीं किस्त वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव की कलम से।

कोरोना की पहुंच पेट के बाहर तक ही नहीं रही, पैठ अंदर तक हो गई है। कोरोना साथ लिए आ रहे हैं शिशु।से में सहज सवाल- कौन है कोरोना से सुरक्षित? पढ़िए, कोरोना डायरी की इक्कीसवीं किस्त वरिष्ठ पत्रकार डॉ. संतोष मानव की कलम से।

कोरोना डायरी- 21

  • डॉ. संतोष मानव

कोरोना बीमारी या महामारी भर नहीं है। यह सीधा-सीधा मौत का संदेश है। यह मायावी राक्षस की तरह है, जो आपको मार डालेगा और आप इससे बचने-छिपने में कामयाब रहे, तब भी यह अपनी माया से मार डालेगा। कम-ज्यादा या बहुत ज्यादा, मौत या घायल पर साबुत तो यह किसी को नहीं छोड़ने जा रहा। इस मायावी को लेकर जो खबरें आती थीं, आ रही हैं, उससे हटकर भी खबरें आने लगी हैं। यही कि इस दुनिया में आने से पहले ही यानी मानव भ्रूण पर कोरोना का हमला हो रहा है। अनेक नवजात कोरोना के साथ इस दुनिया में आ रहे हैं। अभी तक चेतावनी थी कि ऐसा हो सकता है, पर अब होने लगा है। चेतावनी से सच तक कोरोना। पेट के अंदर कोरोना का हमला। और पेट के बाहर भी हमला।

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पेट पर भी हमला- व्यापारी शिकायत कर रहे हैं कि दुकान खोलकर भी कुछ नहीं पा रहे हैं। दिन भर दुकान खोलकर बैठो और ग्राहक को तरसो। इक्का-दुक्का भी नहीं। अब तो दुर्गा पूजा से ही उम्मीद है। माता दुर्गा आएंगी, तो असुर कोरोना वायरस का संहार होगा। बाजार में हरियाली आएगी। तब तक क्या? व्यापारियों की भाषा में कहें तो पेट पर कोरोना की लात! यह तो व्यापारी हुए। उद्योग वाले अलग परेशान हैं। मजदूर गांव चले गए, जा रहे हैं। जो बचे हैं, वे भी जा रहे हैं। पच्चीस प्रतिशत मजदूरों के साथ कारखाने किसी तरह चला रहे हैं, ऐसे में उत्पादन क्या और कितना होगा? ये वही लोग हैं, जिन्होंने जाते हुए कामगारों को न रोका और न संभाला और अब विलाप की मुद्रा में हैं।

नौकरी वाले लोग प्रलाप की मुद्रा में हैं। रोज छंटनी, नौकरी जाने की गूंज है। कोई सुरक्षित नहीं। सरकारी नौकरी है नहीं और जो पहले से सेवा में हैं, उन पर वेतन-भत्तों को लेकर अनेक तरह की पाबंदियां लग रही हैं। जो निजी क्षेत्र की नौकरियों में हैं, वे गाजर-मूली की तरह काटे जा रहे हैं। मोटे अनुमान के अनुसार अब तक के कोरोना काल में पंद्रह करोड़ नौकरी जा चुकी है और मध्य जून तक यह पच्चीस करोड़ हो जाएगी। बहुत बुरे दिन हैं भाई। मोटिवेशनल स्पीकर्स कहते रहे हैं कि कोई दिन बुरा नहीं होता। लेकिन, दिन बुरे होते हैं, इसका अहसास कदाचित उन्हें भी हो गया होगा। किस दृष्टिकोण से आज-कल को अच्छा कहा जाए?

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सच है कि यह कोरोना बड़े-बड़े सिकंदरों को कलंदर बनाकर ही छोड़ेगा। इसका याराना किसी से नहीं। सुना था, राष्ट्रपति भवन में कोरोना, सुना राज्यपाल निवास में कोरोना और आज सुना प्रधानमंत्री आवास में तैनात जवान निकला कोरोना पीड़ित। सोचिए, कहां-कहां धमक है इस कोरोना वायरस की। यह न कोई प्रोटोकॉल मानता है और न इसे किसी का भय है। इस तरह भी कह सकते हैं कि आंखों से नहीं दिखने वाले, कोरोना पीड़ित की एक छींक में तीन से चार लाख की संख्या में बाहर आने वाले कोरोना ने तमाम वैज्ञानिक उपलब्धि को औकात बता दी। ऐसे में परम सत्ता को न मामने वाले क्या कहेंगे? है न राम नाम का सहारा, जिसके जो भी राम हों।

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और मजदूर? इनके बारे में लिखने-बोलने से पहले कलेजा कठुआ जाता है। आंखें  अंधी हो जाती हैं। कितना सहा, कितना सह रहे हैं। महानगरों से गांव-कस्बों की ओर जाता रेला दर रेला। अब दो माह बाद कोर्ट कह रहा है कि  राज्य इनके खाने-पीने का इंतजाम करें। इनसे किराया न लिया जाए। आखिर दर्द की इंतिहा के बाद ही कोर्ट की आंख क्यों खुलती है?  आखिर किसी स्टेशन पर चादर से ढकी मां के शव से चादर हटाती डेढ़ साल की मासूम, चिरनिंद्रा को नींद समझ मां को जगाती मासूम, गरीबी में बच्चियाँ ब्याहते बाप, कूड़े पर बच्चों को फेंकते मां-बाप, कहीं भी जन्म देती जननी, ट्रेनों में भूख-प्यास से पट-पटाकर दम तोड़ते मजदूरों के शव (ताजा सूचना है कि रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स यानी आरपीएफ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है 9 मई से 27 मई के बीच ट्रेनों से 80 लाशें बरामद हुईं), दूध की खोज में भटकते पिता और इधर दम तोड़ते नवजात की तस्वीरें देखने के बाद ही कोर्ट की आंख क्यों खुलती है? ये आंखें पहले भी खुल सकती हैं/ थीं। और सरकारें, बहुत किया हुजूर पर जो किया, वह बहुत ही कम था। ये वहीं लोग हैं, जिन्होंने अच्छे दिन के लिए जिंदाबाद किए थे। आपके ही वोटर सरकार।

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देश के आम जनमानस ने सवा दो माह में इतना सहा, झेला कि अब अक्टूबर तक आ जाएगी वैक्सीन, जैसी खबरें हर्ष का अहसास नहीं करातीं। ये दर्द देती हैं।  दो माह घर में रहे, बाहर खाने की आदत छूटी, तो पेट की बीमारियां ठीक हो गईं, जैसी खबरें उत्साह, हर्ष से ज्यादा हास्य का भाव उत्पन्न करती हैं। पेट ही न बचे, तो बीमारियां कहां रहेंगी? खाने को कुछ न हो, तो बीमारी कहां से आएगी? आएगी, भूख से उत्पन्न बीमारियाँ। प्लेन से लाए गए कामगार, जैसी खबरें सामाजिक सुरक्षा, सरकारी सुरक्षा का एससास जरूर कराती हैं। पर जीने का उत्साह नहीं देती। हां, स्वाभिमान, जीने का उत्साह, जीवन के प्रति मोह जगाती हैं झाबुआ से आईं खबरें, जहां आदिवासियों के बीच सहायता बांटने गए समूह से आदिवासियों ने कहा कि उन्हें सहायता नहीं काम चाहिए। वे काम करके खाना चाहते हैं। इसे कहते हैं सच्चा स्वाभिमान। श्रम का अभियान।

(लेखक दैनिक भास्कर, हरिभूमि, राज एक्सप्रेस के संपादक रहे हैं)

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