उषा गांगुली ने विष्णुकांत शास्त्री के कहने पर पी.एच.डी. नहीं किया

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उषा गांगुली, ओम पारीक और
उषा गांगुली, ओम पारीक और "रंगकर्मी" एक दूसरे के पर्याय हैं।

उषा गांगुली ने विष्णुकांत शास्त्री के कहने पर पी.एच.डी. नहीं किया। उन्होंने बताया था- “विष्णुकांत शास्त्री जी ने मुझे पीएचडी नहीं करने के लिए कहा था। शास्त्रीजी ने कहा था- “तुम  हिन्दी रंगमंच के क्षेत्र में जो काम कर रही हो, वह पी.एच.डी. से ज्यादा महत्वपूर्ण है। शास्त्रीजी कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्यापन के साथ रंगकर्म के लिए समर्पित संस्था “अनामिका” से भी जुड़े थे।

  • अशोक सिंह

उषा गांगुली, ओम पारीक और “रंगकर्मी” एक दूसरे के पर्याय हैं। ओम पारीक से उशा जी के निधन का अप्रत्याशित शोक समाचार मालूम हुआ। उन्होंने अपने फेस बुक वाल पर लिखा- उषा गांगुली हमारे बीच नहीं रही। आज सुबह ही उनका निधन हुआ। उषा गांगुली, ओम पारीक और “रंगकर्मी” एक दूसरे के पर्याय हैं। इसलिए विश्वास करना ही पड़ा।

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कलकत्ता (अब कोलकाता) में हिन्दी रंगमंच, साहित्य और वामपंथी राजनीति पर मेरी सबसे ज्यादा बातचीत उषा गांगुली से ही हुई है। 1982 में जनवादी लेखक संघ, पश्चिम बंगाल के पहले राज्य सम्मेलन के अवसर पर मौलाली युवा केन्द्र में मैक्सिम गोर्की के विश्व प्रसिद्ध उपन्यास “माँ” पर आधारित नाटक का मंचन उषा गांगुली के निर्देशन में हुआ था। पहली बार रंगकर्मी के नाटक के साथ सचिव ओम पारीक से परिचय हुआ। इसके बाद फोन पर और दक्षिण कलकत्ता के उषा गांगुली के घर पर लम्बी बातें होती थीं।

उषा गांगुली की पदवी से उनके बंगाली होने का अहसास होता था। पहली मुलाकात में ही उनके परिवार के बारे में मालूम हुआ कि वे उत्तर प्रदेश की हैं और उनकी पदवी शादी के पहले पांडेय थी। कलकत्ता में ही उनकी शिक्षा हुई। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने हिन्दी में एम.ए. किया था। वे भवानीपुर एजुकेशनल सोसाइटी कॉलेज में हिन्दी पढ़ाती थीं। कॉलेज में पढ़ानेवालों में पीएचडी करने की मानसिकता रहती है। लेकिन उषा गांगुली के साथ डॉ. की उपाधि नहीं थी।

अस्सी के दशक में जब हिन्दी भाषी मध्यवर्ग अपनी पहचान नहीं बना पाया था, तब “रविवार” के संपादक सुरेन्द्र प्रताप सिंह और “रंगकर्मी” के माध्यम से उषा गांगुली की अखिल भारतीय पहचान बन रही थी। दोनों ने ही पत्रकारिता और रंगमंच की दुनिया में इतिहास रचा। अस्सी के दशक में कलकत्ता में हिन्दी के अखबारों को पढ़ने से मालूम ही नहीं पड़ता था कि हिन्दी रंगमंच भी सक्रिय है। अनामिका, पदातिक और रंगकर्मी तीन महत्वपूर्ण संस्थाएं हिन्दी रंगमंच के विकास में सक्रिय थीं।

देश के सबसे बड़े दैनिक पत्र कोलकाता से प्रकाशित बांग्ला दैनिक  “आनंद बाज़ार पत्रिका” में “रंगकर्मी” के हिन्दी  नाटक के विज्ञापन प्रकाशित होते थे। इससे रंगकर्मी के महत्व का पता चलता है। जब रंगकर्मी का शो होता तो उषा जी बता देतीं। “रंगकर्मी” के नाटकों के 99% दर्शक बांग्लाभाषी होते थे, जो कलकत्ता के साथ दूसरे जिलों से नाटक देखने आते थे। जनवादी लेखक संघ में सक्रिय होने के कारण बंगाल के जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन से जीवंत रिश्ता था। अनामिका और पदातिक दोनों मारवाड़ी एलिट समाज की संस्थाएं थीं। मध्यवर्ग का दर्शक करीब-करीब अनुपस्थित था। इनके दर्शक सीमित थे। ठीक इसके विपरीत “रंगकर्मी” को पश्चिम बंगाल के वामपंथी जन संगठनों का पूरा सहयोग मिलता था। राज्य के सभी जिलों में नाटकों के मंचन होते थे।

रंगकर्मी के शुरू के नाटकों का निर्देशन तृप्ति मित्रा, रूद्र प्रसाद सेनगुप्ता, एमके रैना ने किया था।  मन्नू भंडारी के चर्चित उपन्यास “महाभोज” का निर्देशन उषा गांगुली ने किया था। पश्चिम बंगाल सरकार ने वर्ष के सर्वश्रेष्ठ नाटक के निर्देशक का पुरस्कार उषा गांगुली को दिया था। अभिनय के साथ निर्देशन दोनों में उनकी पहचान बन गयी थी। इसके बाद अगले नाटक “लोक कथा” को भी पश्चिम बंगाल सरकार का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार मिला था। वामपंथी पार्टियों के जनसंगठनों के साथ, आफिस संगठन, क्लबों के आमंत्रण इतने ज्यादा होते थे कि तीन महीने से पहले “रंगकर्मी” की बुकिंग करनी पड़ती थी। सीपीआई (एम) के राज्य सम्मेलन के अवसर पर भी रंगकर्मी के हिन्दी नाटक का मंचन होता था। “रंगकर्मी” का ऐतिहासिक महत्व है कि मध्यवर्गीय हिन्दीभाषी संस्था ने उच्च वर्ग पर अपनी जीत का परचम लहरा दिया था। बांग्ला की प्रिंट मीडिया में उषा गांगुली रंगमंच का सबसे बड़ा सितारा बन चुकी थीं। आनंद बाजार पत्रिका ने पूरा एक पेज उषा गांगुली पर केन्द्रित करते हुए लिखा था कि जैसे कभी बंगाली मध्यवर्ग Ritwik Ghatak, सत्यजित राय और मृणाल सेन की नयी  फिल्मों पर बहस करता था, वह स्थान अब उषा गांगुली के हिन्दी नाटकों ने ले लिया है।

मुझे उषा गांगुली का व्यक्तित्व बहुत प्रभावित करता था। वह स्पष्टवादी थीं। यह सूचना और संस्कृति विभाग के मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का दौर था। गौतम घोष ने समरेश बसु की कहानी पर “पार” फिल्म का निर्देशन किया था। इसमें उषा गांगुली ने नैहाटी के चटकल मजदूर की पत्नी की भूमिका में अभिनय किया था। उषा जी ने स्वयं बताया था कि फिल्म के निर्देशक ने उनको अभिनय के लिए निर्देशित नहीं किया था। सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने इस फिल्म के संवाद लिखे थे। प्रतिष्ठित अभिनेत्री होते हुए भी उषा गांगुली का पहला और अंतिम प्रेम रंगमंच ही था। मृणाल सेन की  हिन्दी टेलीफिल्म में उन्होंने संवाद भी लिखा था।

उषा गांगुली की अभिनय यात्रा को 1989 में “आरंभ और रंगकर्मी” द्वारा कला मंदिर में संयुक्त रूप से आयोजित 6 दिवसीय “सफदर हाशमी स्मारक कलकत्ता हिन्दी नाट्य

समारोह” में देखने का अवसर मिला था। 2 जनवरी को सफदर हाशमी की शहादत के बाद पाँच महीने तक, कलकत्ता के विद्यार्थियों की संस्था ने सफदर हाशमी की याद में नाट्य समारोह आयोजित करने का निर्णय लिया था। आयोजन में रंगकर्मी को शामिल करने का प्रस्ताव उषा जी को देने पर उन्होंने तुरंत स्वीकृति दी थी। उषा गांगुली के आमंत्रण पर अंतर्राष्ट्रीय फिल्म निर्देशक मृणाल सेन उद्घाटन करने के लिए आए। “गुड़ियाघर, परिचय, माँ, महाभोज और लोककथा” का मंचन रंगकर्मी ने किया था। उषा जी ने मुझसे पूछा था कि किस नाटक में उनका अभिनय सबसे अच्छा लगा? मेरा उत्तर था- “परिचय”।

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वे मुझसे पूरी तरह सहमत थीं। उनका पूरा व्यक्तित्व उनके अभिनय में मंचित हो रहा था। अशोक सिंह के अविस्मरणीय अभिनय को देखने का अवसर मिला। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विद्यार्थियों की पत्रिका “प्रक्रिया” में “मेरे जीवन में कलकत्ता” पर उषा गांगुली की बांग्ला में प्रकाशित सामग्री का मैंने और दुर्गा डागा ने अनुवाद किया था। हिन्दी में उषा गांगुली पर यह पहला महत्वपूर्ण प्रकाशन था। इसमें उन्होंने माना था कि उनके निर्माण में 70 के दशक के कलकत्ता की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी।

आज लॉक डाउन में जब वे इस दुनिया से विदा हो गयीं, तब उनका प्रिय शहर अपनी श्रद्धांजलि भी अपनी सांस्कृतिक मर्यादा के साथ देने में असमर्थ पा रहा है।

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