अटल बिहारी वाजपेयी जी के 1942 में रोल की सत्यता 

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  • के विक्रम राव

जब तक अटल बिहारी वाजपेयी चुनावी राजनीति से रिटायर नहीं हुये थे,  उन पर हर लोकसभाई निर्वाचन के दौरान आरोप लगाया जाता रहा था| फिर बिसरा दिया जाता रहा। उनके शत्रुओं, खासकर तथाकथित वामपंथियों की एक फितरत जैसी हो गई थी कि अटलजी को 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन में खलनायक,  बल्कि ब्रिटिश राज के मददगार की भूमिका में पेश किया जाय। यह एक सरासर ऐतिहासिक झूठ रहा। मगर नाजीवादी प्रोपेगेण्डा शैली की नकल में भारतीय कम्युनिस्ट इस झूठ को बारंबार दुहराते रहे ताकि लोग सच मान ले। मतदान खत्म हुआ कि यह कुप्रचार भी हवाई हो जाता रहा। कहीं आज की किवदंतियां कल ऐतिहासिक दस्तावेज न बन जायें। इसीलिए आवश्यकता है कि लोकसभा चुनाव अभियान में रवां हुई विकृतियां समय रहते दुरुस्त की जायें। अपर्याप्त साक्ष्य के कारण इतिहास के तराजू पर अक्सर जनश्रुतियां ही पसंगे का रोल करती है। घटना को झुठलाती हैं। ऐसा ही हुआ जब अग्रेंजभक्त जमीन्दारों के परिवारजन इतिहासवेत्ता प्रो. इरफान हबीब ने लोकसभा के आम चुनाव के दौरान लखनऊ में (26 सितंबर 1999)  अटल बिहारी वाजपेयी को ब्रिटिश राज का मुखबिर बताया था। इरफान हबीब तो इतिहासज्ञ हैं! वे भी तथ्यों से ठिठोली करें तो टीस होती हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की 1942 में कथित भूमिका सभी आम निर्वाचनों के दौरान रक्तबीज के खून की बूंद से उपजी महादैत्यों की भांति अक्सर चर्चा में उभरती रही। चुनावी शाम गई,  तो बात भी गई।

अटल बिहारी वाजपेयी ने यदि जो कुछ भी 1942 मे किया होगा, वह सत्रह साल के कमसिन, देहाती लड़के की आयु में किया था। आज इतने विकसित सूचना तंत्र के युग में, एक सत्रह-वर्षीय किशोर की सूझबूझ, सोच और रूचि कितनी परिपक्व होती है, इससे सभी अवगत है। आठ दशक पूर्व गुलाम भारत के ग्वालियर रजवाडे़ के ग्रामीण अंचल में अटल बिहारी वाजपेयी कितने समझदार रहे होंगे? इस कसौटी पर समूचे मसले को जांचने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम राजनीतिक तौर पर दिल्ली के लोकसभा सीट के चुनाव-अभियान (1971) में कांग्रेस के शशिभूषण वाजपेयी ने इस बात को प्रचारित किया था कि भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित अटल बिहारी वाजपेयी ने ग्राम बटेश्वर कांड (1942) में ब्रिटिश सरकार के पक्ष में बयान दिया था, जिसके आधार पर राष्ट्रभक्तों को सजा दी गयी थी। वह दौर चुनावी था, जब इंदिरा गांधी ने  ‘गरीबी हटाओं’ के नारे पर लोकसभा में बहुमत पाया था। सोवियत कम्युनिस्टों का प्रभाव भारत में चढ़ाव पर था। तब मुबंई के साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ (9 फरवरी 1974) ने इस विषय को तोड़-मरोड़ कर लिखा था। तत्पश्चात 1989 के लोकसभा निर्वाचन के दौरान जब पूरा देश तोप (बोफोर्स) की दलाली के मुद्दे पर वोट दे रहा था, तो राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने अटल बिहारी वाजपेयी पर ‘भारत छोडो’ आंदोलन के साथ धोखा देने का आरोप लगाया था। इसके प्रचारक थे श्री डी. एस. आदेल। उसी वर्ष 8 अगस्त को बावन राजीव-भक्त सांसदों ने अटल जी को मुंबई में अगस्त क्रांति समारोह से बाहर रखने की मांग की थी। इस ज्ञापन पर प्रथम हस्ताक्षर थे रंगराजन कुमारमंगलम् के जो बाद में अटलजी के काबीना मंत्री बने। जब मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में 9 अगस्त 1998 को महाराष्ट्र शासन ने समारोह में प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल को आमंत्रित किया था तो कांग्रेस सेवा दल के लोगों ने भी बात उठायी थी कि जब तक अटल बिहारी वाजपेयी (तब लोकसभा में विपक्ष के नेता) 1942 में अपने कथित बयान के लिए खेद नहीं व्यक्त करते, संयुक्त मोर्चा के प्रधानमंत्री को उनके साथ मंच पर नहीं बैठना चाहिए।

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फिलहाल यहां मुद्दा है अटल बिहारी वाजपेयी की भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रति निष्ठा का।  जिस बयान के आधार पर अटल को आज तक हर चुनाव के समय लांछित और प्रताड़ित किया जाता रहा, वह फारसी में लिखा दस्तावेज है। केवल एक वाक्य है जिस पर व्याख्याकारों ने अपनी मंशा तथा आवश्यकता के अनुसार आख्या लिखी है। यह अनूदित वाक्य है किशोर अटल की जुबानीः “मैने सरकारी इमारत गिराने में कोई मदद नहीं की।”  दो सौ लोगों के हुजूम में एक सत्रह साल का देहाती छात्र कितना कर पाता? एक साधारण स्कूल मास्टर कृष्णबिहारी वाजपेयी का छोटा बेटा अटल कम से कम राष्ट्रवादियों के जत्थे में शामिल होकर 1942 में तेईस दिवस जेल तो काट आया। अब इन अदालती तथ्यों पर भी गौर कर ले ताकि भ्रांतियां दूर हो जायें। युवा अटल ब्रिटिश हुकूमत के इकबालिया गवाह (अप्प्रोवर) नहीं थे। अभियोजन पक्ष ने उन्ही के साथियों के विरूद्ध उन्हें साक्षी नही बनाया था। अपने बचाव में रिहाई के हक में युवा अटल ने कोई भी माफीनामा नहीं लिखा था। उनके बयान को सरकार ने किसी सबूत के तौर पर भी प्रस्तुत नहीं किया था। उपरोक्त तथ्य उस पत्रकारी जांच से उजागर हुए हैं जिसे वामपंथी दैनिक ‘हिन्दू’ के साप्ताहिक ‘द फ्रंट लाइन’, के मार्क्सवादी सम्पादक एन. राम ने अपने तीन विशेष संवाददाताओं की खोजी टीम से करायी थी। (दि फ्रंट लाइन, चेन्नई, फरवरी 20, 1998, पृष्ठ 115 से 127)।

एक खास मुद्दा यह है कि पुलिस की कैद में कौन आंदोलनकारी कितनी दिलेरी से रह पाता है? इमरजेन्सी (1975-77) में दरोगा-राज के दौरान चार राज्यों की छह जेलों और पुलिस लॉकअप में तेरह महीने हथकड़ी-बेड़ी में गुजारने के आधार पर, मै निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि पाशविक बल के सामने बिरले ही अडिग रह पाते हैं। यह भी तब जब निष्पक्ष न्यायतंत्र हो, जो इमर्जेन्सी में नहीं था। तब सर्वोच्च न्यायालय तक ने नागरिक के मूलाधिकार को निलंबित कर डाला था। अतः सत्रह-वर्षीय अटल बिहारी वाजपेयी ने यदि कथित बयान दर्ज भी करा दिया, तो अचरज नहीं होना चाहिए। ब्रिटिश पुलिस तब कुछ भी करा सकती थी।

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ऐसा ही मंजर लखनऊ में 1954 में दिखा था। बढ़ी हुई सिंचाई दरों के विरुद्ध प्रजासोशलिस्ट पार्टी ने महासचिव राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में जनान्दोलन छेड़ा था। तब संपूर्णानन्द के मुख्यमंत्रित्व वाली कांग्रेस सरकार पुलिसिया बल प्रयोग कर, गिरफ्तार किसान सत्याग्रहियों द्वारा माफीनामे पर बलपूर्वक हस्ताक्षर करा कर रिहा करती  थी। रोज राज्य सूचना विभाग द्वारा प्रेस नोट भी जारी होते थे कि प्रजासमाजवादी सत्याग्रही माफी मांग कर छूट रहे हैं। हाई कोर्ट के आदेश पर रिहा होकर, लखनऊ के झंडेवाला पार्क की जनसभा में डा. लोहिया ने कहा था कि मेवाड़ के जंगल में घुटने के बल चलते अपने पुत्र के मुंह से घास पीसकर बनायी गयी रोटी के टुकड़े को जब बिलौटा झपट कर ले गया था, तो बिलखते बच्चे को देखकर द्रवित होकर भारत के उस वीरतम बागी ने भी मुगल सम्राट अकबर को समर्पण भरा पत्र लिख दिया था। तो महाराणा प्रताप की तुलना में इन निरीह किसान सत्याग्रहियों की क्या बिसात, पूछा था डा. लोहिया ने तब। ब्रिटिश और इमरजेन्सी के दौरान वाली पुलिस के सामने खड़ा होना केवल मौत के खौफ से निडर व्यक्ति के लिए ही संभव था। अतः अटल बिहारी वाजपेयी ने 1942 में जो कुछ होगा वह राष्ट्रद्रोह नहीं था। एक निरीह तरूण की नादानी रही होगी।

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वाजपेयी का बयान : आगरा के मजिस्ट्रेट (द्वितीय श्रेणी) की अदालत में ब्रिटिश सम्राट बनाम लीलाधर वाजपेयी तथा अन्य वाले केस में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 1 सितम्बर 1942 को फारसी में दर्ज किये गये बयान का हिन्दी अनुवादः “अगस्त 27, 1942, को बटेश्वर के बाजार में आल्हा गाया जा रहा था। अपराह्न करीब दो बजे ककुआ उर्फ लीलाधर तथा महुआ आये और उन्हांने अपने भाषण में वन कानूनों को तोड़ने का जनता से अनुरोध किया। दो सौ लोग वन विभाग के दफ्तर गये। अपने भाई के साथ मैं भी भीड़ के पीछे गया। बटेश्वर वन विभाग कार्यालय पहुंचने पर लोग ऊपर गये। मेरे भाई और मैं नीचे थे। सिवाय ककुआ और महुआ के मै अन्य किसी को नही जानता हूँ। मुझे लगा कि ईटे गिर रही है। मेरा भाई और मैं फिर माईपुरा की ओर चले। भीड़ भी पीछे आ रही। लोगों ने बाड़े से बकरियों को भगा दिया। फिर बिचकोली की ओर चले। दस या बारह लोग वन विभाग के कार्यालय में रहे होंगे। मैं करीब सौ गज की दूरी पर खड़ा था। सरकारी इमारत को गिराने में मैने कोई मदद नहीं की थी। बाद में हम अपने-अपने घर चले गये।”

(फेसबुक वाल से)

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